Motivational

https://youtu.be/UgliJPXS73U?si=y5Edqn6r7vBjvSfR

मैं आज आपको एक लड़की की कहानी सुनाता हूं जिसका नाम है स्कॉट यंग। इसने एक काम किया जो दुनिया के लिए एकदम इंपॉसिबल था। इसने एमआईटी के चार साल के कंप्यूटर साइंस के सिलेबस को सिर्फ एक साल में कंप्लीट कर दिया। सुनने में ये ऐसा लगता है कि शायद ये कोई एक्स्ट्राऑर्डिनरी जीनियस है। लेकिन जब लोग इस चीज की गहराई में गए तो एक बहुत ही शॉकिंग बात उनके सामने आई। ये एक आम लड़का था और दूसरा इसने कभी एमआईटी में एडमिशन ली ही नहीं थी। इसने फ्री ऑनलाइन रिसोर्सेज और यूट्यूब के लेक्चरर्स को यूज करके एमआईटी के सिलेबस को कंप्लीट किया था। सिर्फ इतना ही नहीं इसने 30 दिन के अंदर एक बिगिनर लेवल पेंटिंग से अपना लेवल बढ़ाकर एक प्रोफेशनल लेवल तक अपना पेंटिंग का लेवल बढ़ा दिया। और हद तो तब हो गई जब इसने बिल्कुल ही एक नई लैंग्वेज स्पैनिश को बहुत जल्दी सीख लिया। अब इसने अपने सीखने के तरीके के ऊपर एक पूरी बुक लिखी है। लेकिन इस वीडियो का गोल वो सीखने का तरीका नहीं है बल्कि ये पता लगाना है कि ये इंसान कंसिस्टेंट हुआ कैसे। यानी एक के बाद एक गोल ये कैसे अचीव करता रहा। मैं इसी तरीके से आपको एक और एग्जांपल देता हूं। इस लड़के का नाम है जॉश वाट्स के यहां पर देखो ये ताइवान की ताई ची। मार्शल आर्ट्स चैंपियनशिप का फाइनल राउंड है और यहां पर जॉश अपने अपोनेंट के सामने खड़ा है, जिसे 10 साल का एक्सपीरियंस है। जोश के मूव्स स्लो लग रहे हैं और ऐसा लग रहा है कि ये मैच हार जाएगा। लेकिन फिर ये एकदम से ये गेम जीत जाता है और वर्ल्ड चैंपियन बन जाता है। इस इंसान को जो चीज स्पेशल बनाती है वो ये है कि इसने ये गेम बहुत जल्दी सीखी थी और उससे भी ज्यादा इंटरेस्टिंग चीज ये है कि इससे पहले ये स्टेट लेवल में चेस में चैंपियन रहा है। अगेन इसने भी अपने लर्निंग मेथड के ऊपर एक पूरी बुक लिखी है द आर्ट ऑफ लर्निंग। बट हमारी प्रॉब्लम ये नहीं है। जब नया साल आएगा तो हम सब कमिटमेंट करेंगे और कमिटमेंट करने के बाद उसे फॉलो नहीं कर पाएंगे। और ये मैं नहीं कह रहा हूं ये डेटा कह रहा है। आप इस आर्टिकल को देखिए। ये आर्टिकल कहता है कि नए साल में जितने भी लोग जिम मेंबरशिप लेते हैं उसमें से 61 57 परसेंट कभी अपनी मेंबरशिप यूज ही नहीं करते। यानी की अगर हजार लोगों ने एक नए जिम में मेंबरशिप ली तो 670 तो वहां पर अपना पैर भी नहीं रखेंगे। सेम चीज पैसे के बारे में आती है। जितने भी लोग पैसे से रिलेटेड न्यूज़ में रेजोल्यूशन बनाते हैं की वो कुछ बड़ा करने वाले हैं उसमें से 80% लोग फरवरी तक अपना गोल छोड़ चुके होते हैं। वैसे अगर मैं स्पेसिफिकली फाइनेंस के बारे में बात करूं तो अभी यूएस इलेक्शन की वजह से क्रिप्टो ने ऑल टाइम हाई टच किया है और एक्सपर्ट्स के अकॉर्डिंग ये मोमेंटम और कंटिन्यू हो सकता है। और क्रिप्टो के लिए कॉइनस्विच एक परफेक्ट प्लेटफार्म है कॉइनस्विच। फाइनेंशियल इंटेलिजेंस यूनिट ऑफ इंडिया से रिकॉग्नाइज्ड है और 2 करोड़ यूजर ने इसमें अपना ट्रस्ट दिखाया है। कॉइनस्विच में हम क्रिप्टो में ट्रेड कर सकते हैं जिसमें हमें लोएस्ट फीस देनी पड़ती है। इसमें साढ़े 300 से ज्यादा कॉन्ट्रैक्ट्स हैं और फाइव एक्स तक का लेवरेज अवेलेबल है। जो लोग फ्यूचर ट्रेडिंग में नए हैं उनके लिए पहले 15 दिन के लिए हंड्रेड परसेंट फी रिबेट है। इसमें एक बहुत ही इंटरेस्टिंग फीचर है जिसका नाम है स्मार्ट इन्वेस्टमेंट। इसमें जो हम अपने पैसे इन्वेस्ट करेंगे ये ऑटोमेटिकली उसे ग्रो कर सकता है। मतलब की कम टेंशन के साथ हम अपने इन्वेस्टमेंट को काम पर लगा सकते हैं। अब जो मेन टेंशन एक इन्वेस्टर को होती है वो ये है की क्या इनके पास प्रूफ ऑफ रिज़र्व है तो इनके पास जो टोटल कस्टमर होल्डिंग है वो 700 700000000 की है। जो कॉइनस्विच की होल्डिंग है वो करीबन 407 करोड़ है। ये दिखाता है इनकी फाइनेंशियल हेल्थ की स्ट्रेंथ को। अभी एक अमेजिंग ऑफर है। कॉइनस्विच अब दे रहा है वन परसेंट कैशबैक और पहले 30 दिन के लिए जीरो ट्रेडिंग फीस। तो अभी आप इसे चेक आउट कीजिए। इसका लिंक मैंने डिस्क्रिप्शन में दे दिया है। अब हम वापस आते हैं की हमें एक्चुअल में कंसिस्टेंट रहना कैसे है। अब हमें एलीफेंट रूम यानी सबसे बड़ी प्रॉब्लम का तो पता चल गया की कंसिस्टेंसी ही सबसे मुश्किल चीज है। लेकिन बात तो ये है की कंसिस्टेंसी एक्चुअली अचीव की कैसे जाए। लेकिन इससे पहले की हम ये समझे की कंसिस्टेंसी कैसे अचीव की जाए हमें एक कॉन्सेप्ट को समझना पड़ेगा जिसका नाम है फोर्थ टेंडेंसी। दुनिया में जितने भी लोग हैं उनको स्क्वॉड्रन में प्लॉट किया जा सकता है। जहां पर एक्स एक्सिस में आता है आउटर एक्सपेक्टेशंस और वही एक्सिस में आता है इनर एक्सपेक्टेशंस और इन चार क्वाड्रेंट में चार डिफरेंट टाइप के लोग हैं। अब आपको ये आईडेंटिफाई करना है की आपकी पर्सनालिटी इन 4 में से कौन सी है और उसके बाद ही हर एक पर्सनैलिटी के लिए डिफरेंट डिफरेंट सॉल्यूशन है। सबसे पहले पर्सनैलिटी टाइप आती है अप होल्डर। ये वो लोग हैं जिनकी खुद से जो एक्सपेक्टेशन है और बाहर के लोगों को जो इनसे एक्सपेक्टेशन है। ये दोनों को किसी भी हालत में मीट करना चाहते हैं। इसको हम एक एग्जांपल से समझते हैं। एक लड़का था जिसका नाम है राहुल। वो मार्केटिंग में काम करता है और बहुत ज्यादा एंबिशियस है। उसको लाइफ में कुछ करना है। एक दिन उसने डिसाइड किया की वो अपना पहला मैराथन भागेगा। उसने प्लान बनाया की हर रोज वो सुबह 05:00 बजे उठेगा और उस वक्त मैराथन की प्रैक्टिस करेगा। कुछ मैटर नहीं करता की पिछले दिन वो ऑफिस से लेट आया हो या उस दिन बारिश हुई हो। जब से राहुल ने खुद को मैराथन के लिए प्रॉमिस किया है उसने आज तक एक भी दिन मिस नहीं किया। उसकी कंसिस्टेंसी सबको इंस्पायर करती है। अब हम में से कई लोग बोलेंगे भाई ये तो खुद ही कंसिस्टेंट है। इसमें कंसिस्टेंसी की प्रॉब्लम क्या है। लेकिन स्टोरी को आगे सुनो। सैटरडे को सुबह सुबह जब वो अपने रनिंग शूज पहन रहा था तो उसके फ्रेंड का कॉल आया और उसने कहा राहुल यार मुझे तुझसे बात करनी है। ब्रेकफास्ट पर मिल सकता है। बहुत जरूरी बात है। राहुल फ्रेश हो गया। उसके शेड्यूल में तो ये टाइम था ही नहीं। एक तरफ उसका खुद का रूटीन है, दूसरी तरफ दोस्त को उसकी जरूरत है। उसने डिसाइड किया की भाड़ में जाए दोस्त मैं तो अपना डिसिप्लिन फॉलो करूंगा ही करूंगा। लेकिन जब वो मैराथन के लिए भाग रहा था उसके दिमाग में उसका दोस्त ही चल रहा था। अब देखो अगर आप इस तरीके की पर्सनैलिटी हो जो की अपनी इनर एक्सपेक्टेशंस और बाहर जो लोगों की उनसे एक्सपेक्टेशन है। आउटर एक्सपेक्टेशन उनको किसी भी हालत में मीट करना चाहता है। तो जो ये आपकी सबसे बड़ी सुपर पावर है ये ही आपकी सबसे बड़ी वीकनेस भी बन जाती है। क्योंकि जब भी आप अपने से कुछ एक्सपेक्टेशन रखते हो तो आपने जो बाकी वेरिएबल्स हैं उसको अकाउंट में नहीं लिया होता। अगर आप छह दिन तक मैराथन के लिए भाग रहे हो और सातवें दिन आप मैराथन में नहीं भाग पाए तो आप खुद से फ्रस्ट्रेट होने लग जाओगे। कल को अगर बहुत सारे फ्रेंड आपको बोलते हैं चलना यार बाहर चलते हैं और आप उनके साथ चले जाते हो तो भी आपको बहुत नेगेटिव लगेगा और जैसे जैसे ये बाहर के वेरिएबल्स एड होते रहेंगे आप अपनी एक्सपेक्टेशन से ही दुखी होने लग जाओगे और फिर आप उस काम को ही छोड़ दोगे। तो मेन सवाल आता है की इन पर्सनालिटी वाले लोगों के लिए सलूशन क्या है? इनके लिए सबसे पहला सॉल्यूशन है रूल ब्रेकिंग मोमेंट्स यानी हम खुद प्लान करेंगे की हंड्रेड में से 20 परसेंट टाइम हमारा डिसिप्लिन ब्रेक हो सकता है। अब यह सुनने में बहुत अजीब लगता है की हम तो कंसिस्टेंसी की बात कर रहे हैं तो हम खुद ही अपना रूल क्यों ब्रेक होने देंगे। ये इसीलिए है क्योंकि अगर हम 20 परसेंट टाइम नहीं रखते जिसमें हमारा रूल ब्रेक हो सकता है तो ये 20% टाइम हमारे दिमाग में इतना हावी हो जाता है की हम अपना पूरा का पूरा टारगेट ही तोड़ देते हैं। सेकंड चीज जो अप होल्डर्स को करनी है वो है इमोशनल कॉस्ट। समझो ये वाली पर्सनैलिटी के लोग जिन्हें होल्डर्स कहा जाता है ये बहुत ज्यादा फोकस करते हैं डूइंग व्हाट राइट में यानी एक्जेक्टली क्या चीज है की जो इनका दिमाग का इमोशनल स्टेट चल रहा है उसको ये कभी एनालाइज करते ही नहीं। जब इस तरीके की पर्सनालिटी वाले लोग अपने दोस्तों और फैमिली मेंबर्स के साथ टाइम स्पेंड करते हैं तो उन्हें ये समझना होगा की इसके लिए भी वो अपनी लॉन्ग टर्म सक्सेस पर ही इन्वेस्ट कर रहे हैं। सेकंड पर्सनैलिटी टाइप वाले लोग आते हैं और लीडर्स। ये वो लोग हैं जो इनर एक्सपेक्टेशन उतनी मीट नहीं करते। यानी खुद की खुद से क्या एक्सपेक्टेशन इन्हें फर्क नहीं पड़ता। लेकिन बाहर वाले लोग अगर इनसे एक्सपेक्टेशन रख ले तो इन्हें वो किसी भी हालत में पुरी करनी है। इसे भी हम एक एग्जांपल से समझते हैं। रमेश एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। वो प्लान बनाता है कि हर रोज ऑफिस के बाद वो जिम जायेगा लेकिन रोज कुछ ना कुछ उसे रीज़न मिल ही जाता है। वो बोलता है यार आज लेट हो गया, कल से जाऊंगा। उसका वेट इंक्रीज हो ही जा रहा है और उसकी एनर्जी कम हो रही है। एक दिन उसे उसकी फ्रेंड मिलती है नेहा जो उसका मजाक उड़ा देती है। यार तू बस प्लान बनाने में एक्सपर्ट है। जिम जाने का तो सोच ही मत। सिर्फ प्लानिंग ही करते रहे। जब रमेश को ये बात चुभ गई तो नेहा ने एक सजेशन दिया ठीक है, मैं एक काम करती हूँ। मैं तेरे साथ जिम जाउंगी। जिस दिन तू नहीं जायेगा उस दिन मैं भी नहीं जाउंगी और अगर मैं नहीं गयी तो मैं हर रोज तेरा सबके सामने मजाक उड़ा दूंगी की मैं तो इसके चक्कर में नहीं जा पाई। अब हुआ ये की रमेश और नेहा हर रोज कंटीन्यूअसली जिम जाने लगे और छह महीने में रमेश ने 10 केजी वेट लूज कर दिया। रमेश अपने काम में कंसिस्टेंट इसीलिए हुआ क्योंकि किसी और ने उससे एक्सपेक्टेशन लगा ली थी। और ये जो पर्सनालिटी वाले लोग हैं ये बेस्ट टीम प्लेयर्स होते हैं लेकिन इनकी स्ट्रेंथ ही इनका नेगेटिव पॉइंट है। जब बाहर वाले लोग इनसे बहुत ज्यादा एक्सपेक्टेशन रख लेते हैं तो ये पर्सनालिटी वाले लोग एक दिन एक्स्प्लोर कर जाते हैं। यानी ये सब कुछ ही छोड़ देते हैं। जैसे की रमेश की एक और फ्रेंड थी जिसका नाम था मीरा। वो भी लेजर पर्सनालिटी वाली इंसान थी। जब भी कोई उसे हेल्प मांगता था तो वो उसकी हेल्प कर देती थी। लेकिन एक दिन उन सब ने प्लान किया था की वो एक दिन ट्रिप में जाएंगे और ट्रिप से जस्ट दो दिन पहले बहुत से लोग उसे मैसेज करने लगे तो उसने सबका मैसेज इग्नोर कर दिया और ट्रिप भी कैंसिल कर दी। देखिए इन पर्सनैलिटी वाले लोगों को। अगर कंसिस्टेंट रहना है तो इनका सॉल्यूशन है अकाउंटेबिलिटी। यानी कोई ना कोई इनके साथ होना चाहिए जो इनको अकाउंटेबल ठहराए। अगर ये अपना काम नहीं कर पाएंगे। जैसे की रमेश के केस में नेहा उसकी अकाउंटेबिलिटी पार्टनर बनी थी। अगर आप ब्लाइंड पर्सनैलिटी वाले इंसान हो तो आपको कोई दोस्त चाहिए, कोई कोच चाहिए या कोई ट्रेनर चाहिए जिसके साथ आप अपने गोल शेयर कर पाओ। इनको जो कोच की जरूरत है वो एक्चुअली ट्रेनिंग के लिए भी नहीं है। इनको कोच की जरूरत है। अकाउंटेबिलिटी पार्टनर के लिए। सेकंड चीज जो ये पर्सनालिटी वाले लोग कर सकते हैं वो है पब्लिकली कमिटमेंट करो। सोशल मीडिया में जाकर बार बार लोगों को बोलो की मैं ये गोल अचीव करने वाला हूं। नेक्स्ट चीज जो लीडर्स को करनी है वो है रिबेलियन को अवॉइड करना। यानी की रमेश को समझना पड़ेगा की बहुत से लोगों की एक्सपेक्टेशन को। भी वो मीत नहीं कर सकता। इसीलिए अपने गोल को प्राइवेटाइज करके कई लोगों को इसे नो बोलना ही पड़ेगा। थर्ड बहुत ही इंटरेस्टिंग पर्सनैलिटी। आई है क्वेश्चन इयर्स। ये लोग इनर एक्सपेक्टेशन को तो मीत करते हैं लेकिन आउटर एक्सपेक्टेशंस की। यानी बाहर वाले लोगों की एक्सपेक्टेशन की परवाह नहीं करते। रोहन एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है जो हर चीज का परफेक्ट। सॉल्यूशन ढूंढने में लगा रहता है। उसका सबसे बड़ा स्ट्रगल है डिसीजन मेकिंग। एक दिन उसे कंपनी में नए टूल्स। इंप्लीमेंट करने का प्रोजेक्ट मिला। बॉस ने बोला रोहन, कल तक मुझे एक टूल सिलेक्ट करके बता दो। रोहन ने अपने स्टाइल में रिसर्च शुरू कर दी। ये वाला टूल सही है, लेकिन इसकी मंथली सब्सक्रिप्शन ज्यादा है। दूसरा वाला सस्ता है, लेकिन इसमें सारे के सारे फीचर्स नहीं है। एक और टूल है जो सस्ता भी है, सारे फीचर्स भी। हैं। लेकिन इसमें रिव्यूज अच्छे नहीं है। एक दिन का काम एक हफ्ते तक खींच गया। उसका बॉस इरिटेट हो गया। अरे!

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देखो हर नाकामयाब इंसान शायद आलसी नहीं होता है, लेकिन हर आलसी इंसान नाकामयाब रहता है। उसे कामयाबी कभी मिलती ही नहीं है या फिर कह सकते हैं की बहुत लेट मिलती है इसे एक छोटी सी स्टोरी से समझते हैं। राहुल और सौरभ दोनों एक ही कंपनी में काम करते थे। बस सौरभ राहुल से थोड़ा नीचे के पोजीशन पर काम कर रहा था। क्वालिफिकेशन और एंट्री लेवल इंप्रैशन के वजह से राहुल सौरभ से थोड़ा आगे था। राहुल की सैलरी जहां लाख रुपये थी वहीं सौरभ को 50 हज़ार रूपये मिलते थे। दोनों अकेले रहते थे और सब कुछ लगभग सही चल रहा था। पाँच साल बीत गए दोनों सेम कंपनी में सेम टास्क में कंपीट करते दिखाई देते और अब इन पाँच सालों बाद एक ऐसा वक्त आया जब राहुल को सौरभ के इंस्ट्रक्शंस पर काम करना पड़ता है। राहुल का बॉस अब सौरभ है और जहाँ राहुल अभी डेढ़ लाख तक भी नहीं पहुंचा वहीं सौरभ आज मैनेजर ₹25 लाख का पैकेज उठा रहा है। तो सवाल ये है ये कैसे पॉसिबल है? इसका सिंपल सा आंसर है की राहुल बहुत आलसी था और सौरभ बहुत पंक्चुअल। जहाँ बहुत सारे ऑपच्यरुनिटीज ऑफर्स कॉन्ट्रैक्ट्स जो राहुल को मिलते थे वो उन्हें टालता गया, उसे स्किप करता गया और जब तक उसे होश आया वो मौके जा चुके थे। वो ऑफिस भी रेगुलर नहीं आता था। कोई ना कोई बहाना बस आराम करने के लिए ढूँढता। हर काम को टालता रहता और इसी वजह से कल जो उसका जूनियर था आज उसी के अंडर उसे काम करना पड़ रहा है। दोस्तों इस स्टोरी से एक बात पता चलती है लेजी कोई बीमारी नहीं है बल्कि एक ऐसी तबाही है जो आपकी अच्छी खासी जिंदगी को पूरी तरह खराब और खोखला करके रख देगी। इसको हलके में बिलकुल मत लेना। हर वो इंसान जो आलसी है वो हमेशा गिल्ट और डिप्रेशन में रहता है। आलसपन होना किसी एडिक्शन से कम नहीं है। इनफैक्ट ये आपके स्ट्रेंथ, टैलेंट और विल पावर तक को खा जाता है। 

मैंने पहले भी इस टॉपिक पर वीडियो बनाए हैं। उस वक्त मोटिवेशन की हवा चलती थी। लोग बातों से सुधर जाते थे। लेकिन आज की स्थिति बिलकुल वैसी नहीं है। आज लोगों को वालुज याद दिलाने पड़ेंगे। उन्हें स्ट्रांग एडवाइज रिकमेंड करनी पड़ेगी। वरना ना तो वो खुद कभी अपनी लाइफ में कुछ कर पाएंगे बल्कि अपने परिवार और देश पर बोझ बनेंगे वो अलग। किसी महान इंसान ने एक बड़ी अच्छी लाइन बोली थी की इस दुनिया का सबसे बदकिस्मत इंसान होता है एक आलसी इंसान जिसे अपनी बेइज्जती और बर्बादी हर बार तमाचा मारती है लेकिन फिर भी वो बार बार बेइज्जत होना चाहता है। दोस्तों कई लोग आज डिप्रेस्ड हैं, एंजाइटी और एंगर इश्यूज हैं जिन्हें वो सब सिर्फ इस वजह से हैं क्योंकि उन्होंने वो काम उस वक़्त पर नहीं किया जिस वक्त पर उन्हें करना था और आज उन्हें बैक पेन और मसल इश्यूज के साथ साथ जो दिमाग पहले इतना तेज हुआ करता था अब उसमें भी जंग लग चुकी है। तो आइए दोस्तों इस प्रॉब्लम को करीब से जानते हैं और वीडियो के एंड तक इस प्रॉब्लम को जड़ से खत्म करते हैं। देखो आलस खत्म करना इतना आसान नहीं है यह मैं पहले ही फ्रैंकली बता देना चाहता हूं। अगर आप यह सोचते हो की वीडियो देखा और काम हो गया तो आप गलतफहमी में हो आप अंधेरे में जी रहे हो। जैसा की मैंने कहा इतना आसान नहीं है जितना लगता है। सबसे पहले हमें इसकी कमजोरी को जानना होगा और यह समझना होगा की एक आलसी इंसान और एक मोटिवेटेड इंसान में फर्क क्या है। शीशे की तरह सब कुछ साफ दिखाता हूं आपको जिससे आप खुद गौर करके चीजों को सही कर पाएंगे। देखो आलस एक्चुअली कोई वायरस या बैक्टीरिया नहीं है। यह एक एक्सपीरियंस और काइंड ऑफ फीलिंग है, जो बॉडी को कंफर्ट का लालच देती रहती है। यह बिल्कुल उसी तरह से है जिस तरह से किसी प्यासे को एक बूंद पानी पिलाओ और अगले बूंद के लिए तरस जाओ। माइंड हैक हो जाता है आलस की फीलिंग से और इससे आपको हर जगह आराम करने का मन करता है। वो कहावत है ना स्ट्रांग मैन, क्रिएट इजी, टाइम एंड वीक मैन अगेन क्रिएट हर टाइम। बस वही वाली बात है। पहले इंसान जंगल में रहते थे और जमीन पर भी आराम से सो जाया करते थे। लेकिन आज डबल मैट्रेस के सॉफ्ट और कोजी बेड पर भी नींद नहीं आती है। अब बात करते हैं कि एक्जेक्टली अलग से इफेक्ट कैसे करता है। तो दोस्तों देखो बात एकदम सिंपल है। वो फीलिंग जो डोपामीन और सेरोटोनिन जैसे प्लेजर और हैप्पी हार्मोन्स को एक्टिवेट करती है। बस यही फीलिंग आती है आलस मन में। लेकिन इसको माइंड क्रिएट करता है। बॉडी तो बस उसे फॉलो करती है और जब बॉडी को उससे मजा आने लगता है तो वो माइंड के साथ कोऑर्डिनेट कर लेती है। इससे इनका बॉन्ड और स्ट्रांग बन जाता है और यही वजह है की अब आप चाह कर भी मेहनत नहीं कर पाओगे। अब इसका सॉल्यूशन क्या है वो मैं आपको बताऊंगा लेकिन पहले इसे थोड़ा और समझने की जरूरत है। आलस्य पूरा माइंडसेट का गेम है। इसे समझने के लिए हम ये जानते हैं की एक क्रेजी आदमी का माइंडसेट कैसा होगा और एक हार्ड वर्किंग आदमी का माइंडसेट कैसा होगा। एक आलसी इंसान हमेशा खाने को क्रेव करेगा उन चीजों से जिससे वो एडिक्टेड है, उसको क्रैक करेगा और ओवरथिंकिंग की भी गंदी बीमारी होगी उसे। वहीं एक हार्ड वर्किंग आदमी अपने काम को क्रैक करेगा। उसके दिमाग में हर वक्त प्रेजेंट सिनेरियो को लेकर नए नए आइडियाज चलेंगे और वो प्लानिंग ज्यादा करेगा ना की ओवरथिंकिंग। दोस्तों मैं आपको तीन बहुत बड़ी मिस्टेक्स और रीजंस बताऊंगा जिस वजह से आप आलसी हो और चाह कर भी इस आलस्य से बाहर नहीं निकल पा रहे हो। नंबर वन पुअर पर्सनैलिटी। आप पूरे ढीले हो चुके हो। दिल, दिमाग और शरीर तीनों से आपका अब अपने आप पर कोई कंट्रोल नहीं रहा। आपका जो माइंडसेट है, वो आपको अब एक हीरो की तरह नहीं देखता, बल्कि एक कॉमन मैन की तरह पोट्रे करता है। इसी वजह से आपके अंदर अब मोटिवेशन भी नहीं रहा है। आप अच्छा फील नहीं कर रहे हो। आप हमेशा इरिटेट और फ्रस्ट्रेटेड फील करते हो। एक इंसान सबसे ज्यादा आलसी अपनी इसी हालत में होता है जब उसका दिमाग और उसका शरीर आपस में कोऑर्डिनेट नहीं करता है। इसके पीछे वजह सिर्फ एक है और वो है टॉक्सिसिटी, टॉक्सिक एनवायरनमेंट, टॉक्सिक वीडियोस और टॉक्सिक थॉट्स। बस इन्हें पीछे छोड़ दो। लाइफ कंपलीटली चेंज हो जाएगी और आलसपन से भी निकल जाओगे। नंबर दो मैसेज सराउंडिंग एक ये रीजन भी हो सकता है। हो सकता है आपका रूम बहुत गंदा रहता है। आप हमेशा ऐसे रूटीन को फॉलो करते हो। फॉर एग्जांपल कभी भी उठाना, कभी भी सोना। कभी सुबह 04:00 बजे उठ गए तो कभी सुबह 04:00 बजे सोने ही गए। अगर ऐसा एक बेढंग सराउंडिंग आपका होता रहेगा ना तो कभी भी काम करने का दिल नहीं करेगा। इसलिए सबसे पहले अपने सराउंडिंग को क्लीन रखो, साफ सुथरा रखो, चीजों को उनके सही जगह पर रखो और हर तरह से कोशिश करना की आपका रूम और आप खुद अच्छे दिखो। नंबर तीन। लॉट्स ऑफ़ डिस्ट्रक्शन दोस्तों आलसपन की सबसे बड़ी जो वजह है वो है आज के टाइम का डिस्ट्रक्शन। इस चीज को अगर इंक्लूड ना करो तो फिर मेरा वीडियो बनाने का कोई मतलब ही नहीं है। प्रॉब्लम ये है ना की सोशल मीडिया के आने के वजह से लोगों के लिए डिस्ट्रैक्ट होना और भी आसान हो गया है। प्रॉब्लम यही तो बन चुका है की लोग आराम से सोफे पर बैठे बैठे फोन में इतने घुस जाते हैं की अब वो चाह कर भी नहीं निकल सकते हैं तो सबसे पहले उस डिस्ट्रक्शन को खत्म करना होगा। एक बार अगर इस तरह की डिस्ट्रक्शन खत्म हो गई तो आपके पास आलसी होने का कोई बहाना ही नहीं बचेगा। तो अब सवाल ये है की ये सब खत्म होगा कैसे? तो ये ऐसे खत्म होगा की अपना वो पहला क्लिक ही मत करो। आप वो पहला रील ही मत देखो जिससे आप एडिक्टेड हो जाओ। तो दोस्तों ये थे कुछ बड़े इंपॉर्टेंट रीजंस। अब बात करेंगे सॉल्यूशंस की की कैसे दुनिया का सबसे बड़ा आलसी इंसान भी सुधर सकता है, बदल सकता है और अपनी जिंदगी को बेहतर कर सकता है। नंबर वन वन मिनट टेक्निक। हमारा दिमाग बहुत मासूम है। एक मासूम बच्चे की तरह है। उसे बस किसी भी काम में सिर्फ एक मिनट के लिए उलझा दो। उसके बाद वो अपनी दुनिया में खो जाएगा। यही करना होता है बस आलसी इंसान के साथ। अगर आप एक आलसी बंदे हो दिमाग में बस इतना सोचो की ज्यादा नहीं सिर्फ एक मिनट ये काम करना है मुझे। अगर सुबह उठने में आलस आता है तो बस ये सोचो की ज्यादा नहीं बस एक मिनट के लिए उठकर बाहर टहलना है मुझे। अगर पढ़ने में बहुत ज्यादा आलस आता है तो ये सोचो की ज्यादा नहीं बस सिर्फ एक मिनट के लिए किताब खोल कर पढ़ना है मुझे। हर वो काम जो आपको करने में बहुत आलस आता है उसे बस एक मिनट करना है। इतना सोच कर उठो फिर देखना कितना मजा आएगा। नंबर टू लिव इन सस्पेंस। दोस्तों निखिल बहुत आलसी था। इतना ज्यादा आलसी था की वो हफ्ते में सिर्फ एक ही दिन उठ कर कॉलेज जा पाता था वरना वो रोज लेट होता क्योंकि वो सुबह जल्दी उठ ही नहीं पाता था। वो अच्छे खासे पैसे वाले घर से था इसलिए उसको कुछ आठ 10,000 रूपए मिले। शोपिंग करने को वो गया और उसने अपने लिए कपडे लिए। अगले दिन अलार्म के पहले साउंड पर ना सिर्फ वो उठा बल्कि वो उठ कर गया भी, नहाया भी और कॉलेज भी गया। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि उसे नए कपड़े पहन कर कॉलेज में दिखाने की ज्यादा एक्साइटमेंट थी। बस इसीलिए वो उस दिन जल्दी उठा और गया। उस दिन किसी भी तरह की हालत ने उसे तंग नहीं किया। ऐसे ही एक दिन उसने ब्रांड न्यू वॉच ली और अगले दिन वो फिर जल्दी उठा। इससे ये पता चलता है की अगर आपकी लाइफ में हमेशा एक काइंड ऑफ सस्पेंस छिपा रहेगा तो आलस का खयाल कभी आएगा ही नहीं। इसलिए कोई ना कोई चीज खाली छोड़ दिया करो या अपने लिए सिचुएशन ऐसी बनाओ। जैसे आपको उस काम को करने के लिए मजा आने लगे। इससे कुछ समय के बाद आपका आलसपन एकदम गायब हो जाएगा। नंबर थ्री डी रूल दोस्तों ह्यूमन लाइफ में 70 परसेंट काम करना चाहिए और ट्वेंटी फाइव परसेंट आराम। बट आज के यंगस्टर्स एकदम अपोजिट करते हैं। वो 90% आराम करते हैं और 10 परसेंट कम। साइंस भी इस चीज को क्रिटिसाइज करती है। बॉडी और माइंड बहुत कॉम्प्रोमाइज ऑब्जेक्ट है। तभी तो कुछ लोगों को कंबल के अंदर भी ठंड लग जाती है और कुछ लोग कश्मीर और शिमला में रहकर भी एकदम फिट है। आप अपनी बॉडी को जैसा स्ट्रक्चर दोगे वो बिल्कुल वैसा ही होने लगेगा। इसके लिए आपको सिंपल करना कुछ नहीं है। रात को 10:00 बजे से पहले अपने बेडरूम में मत जाओ। कोई ना कोई काम खोजते रहो करते रहो। काम में मन रहना चाहिए और सिर्फ मेहनत होनी चाहिए। दिन के 30 परसेंट टाइम मेहनत करो और लास्ट के 20 परसेंट आराम करो। दोस्तों मुश्किल से शायद सात दिनों बाद आपकी बॉडी इसी प्रोसेस को अडॉप्ट कर लेगी और अब आपके लिए आलसपन जैसी कोई चीज एक्जिस्ट ही नहीं करेगी। बॉडी को अब काम करने की आदत लग जाएगी और आराम करने की आदत छूट जाएगी।

https://www.youtube.com/watch?v=WlrlWQGvnfQ

दोस्तों बस दो मिनट के लिए सिर्फ अपनी आंखें बंद कर लो और उस नजारे को देखने की कोशिश करो जो मैं अभी आपको दिखाने वाला हूं। इमेजिन करो रात के 08:00 बजे आप एरोप्लेन पर चेकिंग करते हो। आपका सफर 12 घंटे का होने वाला है। हवाई यात्रा शुरू होने के मुकाम पर है। बस कुछ पलों में यात्रा शुरू होगी। घनघोर अंधेरे और कड़कती बिजली के बीच वो हवाई जहाज जिसमें आप आराम से कॉर्नर सीट पर बैठे हो वो एरोप्लेन टेकऑफ करता है। रात का समय। इस वजह से पूरे फ्लाइट में घुप्प सन्नाटा है। रात के डेढ़ बज रहे हैं और इस वक्त जब आपके साथ साथ दूसरे सभी यात्री गहरी नींद में खोए हैं, प्लेन को एक जोर का झटका लगता है। एक ऐसा झटका जिससे पूरा प्लेन कांप जाता है। सभी के सभी पैसेंजर्स बहुत घबरा जाते हैं। उस फ्लाइट में छोटे बच्चे, बूढ़े लोग नए शादीशुदा लोग हैं और आपको इसी बीच एक बहुत बड़ी चट्टान अचानक आपके प्लेन के सामने आ जाती है। वेदर कंडीशन के बहुत ज्यादा खराब होने की वजह से पायलट्स बहुत ज्यादा कंफ्यूज और नर्वस हो जाते हैं और प्लेन को ऊपर के डायरेक्शन में टेक ऑफ करने का ट्राई करते हैं। लेकिन तभी प्लेन का बॉटम यानी सबसे पिछला हिस्सा टूट जाता है और लगभग 400 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ रहे उस प्लेन में बैठे सभी पैसेंजर्स एक सेकंड में प्लेन से बाहर गायब हो जाते हैं। याद रहे, ये नजारा आपके आंखों के एकदम सामने हो रहा है। बेशक, उस वक्त आपका दिल दो गुना तेजी से धड़केगा, आपकी सांस फूलेगी और आप बहुत ज्यादा डर जाओगे। लेकिन ये तो खौफ की

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कुछ देर के लिए मान कर चलते हैं की आप एक फौजी हो। अब जरा सोचिए रात के 02:00 बजे हों। सुनसान जंगल हों। चारों तरफ घनघोर सन्नाटा हो। आप एक ऐसी जगह पर हो जहाँ आज से पहले आप कभी नहीं आए। सिर्फ नक्शे में ही आपने वो जगह देखी है। और इससे भी बुरी बात ये की आप अपने दुश्मन के इलाके में घुस चुके हो। वो दुश्मन जिसे अगर आप अभी हाथ लगाते हो ना तो वो आपका नरक से भी बुरा हाल कर सकता है। वो दर्द जो आपने कभी सपने में भी महसूस नहीं किया। आप जिसकी कल्पना तक नहीं कर सकते उससे भी बुरी हालत वो आपकी कर सकते हैं। आपको क्या लगता है आप अभी सुरक्षित हो? नहीं, अभी कहीं भी, किसी भी झाड़ी, किसी भी पेड़ की शाखाओं पर वो दुश्मन घात लगाए बैठा हो सकता है। ना आप चिल्ला सकते हो, ना कोई आपकी आवाज सुनेगा, ना आप भाग सकते हो और ना ही आप भागने की हालत में हो। इस वक्त आप सिर्फ दो ही चीज कर सकते हो। हाँ सिर्फ दो ही चीज या तो मार सकते हो या फिर मार सकते हो। बस सिर्फ इतना ही कर सकते हो आप। अब बताओ क्या करोगे? मारोगे या मारोगे? मुझे पता है लगभग 10 में से नौ लोग इसका सटीक जवाब दे ही नहीं पाएंगे क्योंकि ये दोनों ही काम करने में, उनकी फटेगी मारने में भी और करने में भी। अच्छा एक बात मैं अभी बता देता हूँ की ये एक सच्ची कहानी है जो मैं अभी सुनाने वाला हूँ। जरा सोच कर देखो एक सुरक्षित जगह पर अपने लोगों के बीच, अपने घर के कोने में अपने बेड पर बड़े आराम से बैठकर सिर्फ दो मिनट। इस सीन को इमेजिन करने मात्र से आपके रोंगटे खड़े हो गए होंगे। तो उन लोगों का क्या होता होगा जो हर रोज ऐसी मौत के ऊपर नाचते हैं। हां मैं बात कर रहा हूं हमारे देश के महान और नौ जवान सैनिकों की। इतना जिगरा कैसे आता है उनमें? वो भी तब जब उन्हें पहले से पता होता है की मौत उनके सामने खड़ी है। साल था दो हज़ार चार। कश्मीर खौफ के अंधेरे में जी रहा था। इसी बीच इंडियन आर्मी को खबर मिली की हिजबुल मुजाहिदीन के दो बड़े कमांडर्स कश्मीर में घुस गए हैं और वहां के जवान लड़कों को इस तरह भड़का रहे हैं जिससे वो उन्हें अपने टेरेरिस्ट ग्रुप में शामिल कर लेंगे और फिर भारत देश को बर्बाद करने के लिए ही उनका इस्तेमाल किया जाएगा। और ये करना उन कमांडर्स के लिए ज्यादा मुश्किल भी नहीं था क्योंकि उस वक्त कश्मीरियों के मन में इस तरह का जहर घोल दिया गया था की भारतीय सेना तुम्हारी दुश्मन है वो तुम्हारे जीने का हक छीन रही है। इस खबर का पता चलते ही मेजर मोहित ने सबसे पहले अपने हायर ऑफिशियल से इस मिशन पर काम करने की बात की और अगले ही हफ्ते अपना भेष बदलकर खुद का नया नाम इफ्तिखार भट्ट रख कर वो सीधे बिना किसी सुरक्षा के कश्मीर में घूमने लगे। वो मुजाहिदीन के भेष में थे ये जानने के लिए की कहां पर कश्मीरियों को आतंकवादी बनाने की तैयारी चल रही है और जल्द ही उन्हें इसका पता भी चल गया। मेजर खुद उस जगह पर गए और हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर से कहा की मुझे इंडियन आर्मी से मेरे बड़े भाई की मौत का बदला लेना है। मुझे भी अपने साथ शामिल कर लो। जिसके बाद उन्हें उन बाकी कश्मीरियों में शामिल कर लिया गया जिन्हें आतंकवादी बनाया जा रहा था। हालांकि तब भी उन टेररिस्ट ग्रुप के कमांडर को मेजर पर शुरू से ही शक हो रहा था और ये बात मेजर भी समझ गए थे। इसलिए लगभग छह महीने तक किसी तरह अपनी सच्चाई छुपाते हुए उन्होंने उस ग्रुप के सभी ठिकानों का पता लगा लिया। जिसमें खतरा इतना ज्यादा था की एक गलती और अगले ही पल उनका वो हश्र होता जो शायद मौत से भी 100 गुना ज्यादा डरावना होता। लेकिन तब भी बिना डरे उन्होंने उस मिशन को पूरा किया और सभी जानकारी निकलने के अगले दिन ही उन दोनों टेरेरिस्ट कमांडर्स के सिर पर गोली मार कर उन्हें नर्क का रास्ता दिखाते हुए मेजर सेफली अपने बटालियन में वापस लौट आए। ये सुनने में भले ही किसी फिल्म की कहानी लग रही हो लेकिन ये एक सच्ची दास्तान है और इसी बहादुरी के लिए मेजर मोहित शर्मा को दो हज़ार 4 में सेना मेडल से सम्मानित किया गया था। ये तो सिर्फ उनकी वीरता की एक झलक थी और इस झलक से ये एकदम साफ हो गया था की आगे यही जवान देश के लिए कुछ भी कर गुजरेगा। बात है 21 मार्च 2 हज़ार 9 की जब मेजर कश्मीर में सेवा दे रहे थे और अचानक से उन्हें ये खबर मिली की जंगल में हिजबुल मुजाहिदीन के कई टेररिस्ट छिपे हुए हैं, वो कभी भी उन पर हमला कर सकते हैं। इस बात का पता चलते ही मेजर बिना देरी किए अपने कुछ साथियों के साथ उन टेररिस्ट का खात्मा करने पहुंच गए और बड़े ही चालाकी से सबको मौत के घाट भी उतारने लगे। पर इसी बीच उनके एक साथी को गोली लग गई। मेजर बहुत ही सेफ पोजीशन पर थे लेकिन उस वक्त अपनी पोजीशन छोड़कर उन्हें उसकी मदद करने के लिए जाना पड़ा। जिसमें उन्हें लगातार कई गोलियां पीठ पर मारी गई। लेकिन इतनी घायल हालत में भी उन्होंने चार और टेरेरिस्ट को मार गिराया। पर कहते हैं ना की कुछ ऐसे हालात आते हैं जहां आपका मन तो पूरी तरह जिंदा होता है लेकिन आपका शरीर साथ छोड़ देता है। हद से ज्यादा गोलियां लगने की वजह से। कुछ ही पलों बाद मेजर का शरीर उनका साथ छोड़ गया और मेजर मोहित शर्मा अपने देश का नाम लेते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। मेजर मोहित शर्मा जी के लिए आज हम जो भी करें वो कम ही होगा। उनकी बहादुरी का ऋण हम चाह कर भी नहीं चुका पाएंगे। लेकिन हम एक चीज कर सकते हैं की यह वीरगाथा अपने आने वाली पीढ़ी तक जरूर पहुंचाएं और ये उन्हें हमेशा याद दिलाते रहे की इस देश की माटी ने कितने वीरों को जन्म दिया है और इस माटी की आन बचाने के लिए कितने वीर शहीद हुए हैं। चलो कुछ सुनाता हूं अगर देश के लिए जरा भी प्रेम है ना, तो बीच में मत भागना। वरना आपसे बड़ा कायर कोई नहीं होगा जो किसी के बलिदान तक को पूरा ना सुन पाए। क्या लगता है आपको? क्या कोई इस तरह इतना महान बनता है? नहीं, बल्कि उसकी शुरुआत उसके बचपन से ही हो जाती है। शायद उस दिन से जिस दिन वो जन्म लेता है। वो क्या सुनता है और क्या देखता है वही चीज उसके दिमाग में घूमती है। एक लड़का अपने मां बाप का सबसे छोटा बेटा। एक बहुत ही सीधी सादी सामान्य फॅमिली में बड़ा हो रहा था। पढ़ाई में वो बहुत ज्यादा अच्छा नहीं था लेकिन फिर भी उसको हमेशा कुछ बड़ा करना था। कुछ ऐसा जिससे वह अपने देश के लिए कुछ अच्छा कर सके और इसी सोच की वजह से उसके मन में आर्मी ज्वाइन करने की भावना जागी। लेकिन उसके लिए ये रास्ता जरा भी आसान नहीं था। जब उसने यह बात अपने परिवार वालों से कही की मुझे आर्मी ज्वाइन करनी है तब किसी ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। सोचा की ये तो अभी बच्चा है ना तो इसका पढ़ाई में मन लगता है और ना ही इसका मन एक जगह रुकता है। और ये बातें उस बच्चे के लिए गलत भी नहीं थी। लेकिन उसने अपनी इन खामियों को कभी अपने सपने से ऊपर जाने नहीं दिया। समय आगे बढ़ता रहा और दिन रात अपने सपने को ध्यान में रख कर उसने ऐसी जी तोड़ मेहनत की की आखिर में उसने अपने सपने को पा लिया और परिवार का नाम रोशन करते हुए सन 20 20 में इंडियन आर्मी में सिलेक्ट होकर मद्रास रेजिमेंट में पांचवी बटालियन में अपनी सेवा देने चला गया। मैं बात कर रहा हूं मेजर मोहित शर्मा की जिनके लिए ये कहना गलत नहीं होगा की लाखों ऐसे लोग हैं जो अपनी पूरी जिंदगी बिता देते हैं और अंत में सोचते हैं की उन्होंने ऐसा क्या किया जिसके लिए दुनिया उन्हें याद रखेगी। लेकिन मेजर मोहित शर्मा एक ऐसी शख्सियत थे जिन्हें इस बात की कभी भी चिंता नहीं करनी पड़ी। उनका पूरा जीवन ऐसे बहादुरी भरे पलों से भरा है जिन्हें सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे और ऐसे ही उनके कुछ बहादुरी के पलों को आज हम यहां जानने वाले हैं। मेजर मोहित जी की पहली पोस्टिंग मद्रास रेजिमेंट के पांचवीं बटालियन में हुई थी, जहां उन्होंने बिना दिन रात देखे अपने काम के प्रति जो उनका प्यार था उसे निभाते हुए दो साल तक मद्रास रेजीमेंट में सेवा दी। जहां अपनी मासूमियत और हंसमुख मिजाज से वो वहां के सभी जनरलों और अपने साथियों के चहेते बन गए। लेकिन हमेशा से उन्हें अपने देश के लिए कुछ बड़ा करना था। ये सोच उन्हें वहां ज्यादा समय तक रुकने नहीं दे रही थी। इसी के चलते उनके मन में पैरा एसएफ ज्वाइन करने की बात आई, जिसे भारत की सबसे स्किल्ड और एलीट स्पेशल ऑपरेशन यूनिट माना जाता है। जहां की ट्रेनिंग इतनी सख्त और फोकस्ड होती है की अमेरिका और रूस जैसे सुपर पावर्स भी जिनकी ट्रेनिंग और मिलिट्री खुद बेस्ट लेवल पर है वो भी पैरा एसएफ कमांडोज के साथ ट्रेनिंग करने का मौका कभी नहीं छोड़ते हैं। बस यही सपना अपने मन में लेकर की मुझे पैरा एसएफ ज्वाइन करना है। मेजर मोहित अपने मद्रास रेजीमेंट के जनरल के पास जाते हैं और उन्हें ये बताते हुए कहते हैं की मुझे अपने देश के दुश्मनों को उस नर्क का दरवाजा दिखाना है जिसके बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा। मोहित जी की इस बात को सुनकर जनरल को इस बात का अंदाजा हो जाता है की इस लड़के में अपने देश के लिए जज्बा है। यह अपने देश के लिए जान देने से पीछे नहीं हटेगा। जिसके बाद यह बात हायर जनरल तक पहुंचती है और फिर मोहित जी को अपनी काबिलियत दिखाने का मौका दिया जाता है। उसी के कुछ ही हफ्तों बाद में उनकी पैरा एसएफ ज्वाइन करने की ट्रेनिंग शुरू हो जाती है। इस ट्रेनिंग के बारे में एक बात मैं आपको बता दूं की पैरा एसएफ में ट्रेनिंग ये सोच कर नहीं दी जाती है की इस ट्रेनिंग को पूरा करके कोई पैरा ऐसा जॉइन करेगा बल्कि ट्रेनिंग को इस तरह बनाया जाता है की इस ट्रेनिंग में सोल्जर्स इस तरह से टूट जाए की वो कभी पैरा एसएफ ज्वाइन करने का नाम ही ना ले। इस ट्रेनिंग से उन्हें ऐसे डर का एहसास हो की कभी उनके मन में दूसरी बार ये खयाल ही ना आए की मुझे पैरा एसएफ ज्वाइन करना है। और ऐसी कठिन ट्रेनिंग के पीछे यह कारण होता है की जहां पर एक आदमी पूरी तरह से टूट जाता है, जहां उसका शरीर हिलने तक की हालत में नहीं होता है, उसका दिमाग अपने सोचने की क्षमता खोने लगता है। ऐसी स्थिति में भी पैरा एसएएफ कमांडोज मिशन को जीत कर आते हैं। इस ट्रेनिंग को पूरा करके आप कह नहीं सकते की जो इंसान इस ट्रेनिंग को पूरा करके पैरा एसएएफ में गया है वह कोई आम इंसान है। पैरा एसएफ का हर एक कमांडो खुद में एक किलर मशीन है, जिसे दुनिया के सभी मेजर वेपन्स चलाने आते हैं। अगर उन्हें जंगल में भी अकेला छोड़ दिया जाए तब भी उनमें इतनी हिम्मत और नॉलेज होती है की किसी की मदद के बिना भी वो अकेले महीनों तक जंगल में रह सकते हैं और ऐसा ही उन्हें अपने हर मिशन पर करना पड़ता है जब वो ज्यादातर टेरेरिस्ट कंट्रीज में जाते हैं। अब इन बातों से यह समझना मुश्किल नहीं है की क्यों पैरा एसएफ की ट्रेनिंग इतनी ज्यादा मुश्किल होती है। और ऐसी ही ट्रेनिंग को पहली बार में मेजर मोहित शर्मा ने पूरा किया था। जिसके बाद उनकी पोस्टिंग कश्मीर में हुई। उन्हें पैरा एसएफ की पोस्ट बटालियन में कमांडो की पोस्ट मिली और वो इसके मेंबर भी बन गए। जिसके बाद ये कहना जरा भी गलत नहीं होगा की जिस तरह समय के साथ हीरे की निखार बढ़ती जाती है उसी तरह मेजर मोहित जी ने भी अपने आने वाले मिशन को इस तरह से पूरा किया की उन मिशंस की वजह से मोहित जी का नाम पूरे बटालियन में मशहूर हो गया। और आगे क्या हुआ ये आप स्टोरी में पहले ही जान चुके हैं। बाकी उम्मीद करूँगा ये वीडियो आप अपने हर एक फ्रेंड को जरूर शेयर करोगे। फिर मिलते हैं इसी तरह के एक और इंटरेस्टिंग वीडियो के साथ। जय हिंद। जय श्री कृष्णा।

https://youtu.be/kefhPf4FeLU?si=_vqJE50FIm2nGlmH

Success

1) https://youtu.be/vlrQ7jSxPkk?si=RhcQfPJ7YvF6x0lk

एक गरीब किसान का बेटा जो सिनेमा हॉल में चौकीदारी करके महीने के सिर्फ ₹90 कमाता था। कौन यकीन करेगा की एक दिन वो ऐसी कंपनी खड़ा कर देगा जिसकी टर्नओवर पाँच हज़ार करोड़ रुपये से भी ज्यादा की होगी। सुनने में ये थोड़ी फिल्मी कहानी सी लगती है लेकिन इसे सच कर दिखाया है 10वीं पास चंदू भाई ने। जिनके पास एक समय किराए के लिए ₹50 तक नहीं थे। लेकिन थिएटर की सीट साफ करके, फिल्मों के पोस्टर लगाकर और कैंटीन में सैंडविच बेचकर ये गरीब लड़का आखिर इतना सफल कैसे हो गया की गुजरात के सबसे बड़ी वेफर कंपनी बालाजी वेफर्स का मालिक बन बैठा। ये सफर कितना स्ट्रगल से भरा रहा और इन्होंने कौन सी स्ट्रैटेजी अपनाई की इनका सबसे बड़ा कंपटीटर भी इनके सामने हारता चला गया। सब कुछ हम डिटेल में जानने वाले हैं आज के इस कहानी में। 

एक्चुअली बात है 1972 की जब गुजरात के जामनगर जिले के एक छोटे से गांव के अंदर पोपट रामजी भाई विरानी नाम के एक गरीब किसान रहते थे जो की खेती करके ही अपने परिवार का पेट पालते थे। इन्हें खेतों के ही सहारे जैसे तैसे गुजारा हो रहा था। लेकिन एक साल ऐसा आया की उनके एरिया में बारिश ही नहीं हुई और सारी फसलें बर्बाद हो गई और फिर इसके बाद भी कभी सूखा तो कभी बिन मौसम बरसात ने पोपट रामजी भाई और उनके परिवार का जीवन मुश्किल में डाल दिया था। और फिर इन्हीं सभी प्रॉब्लम्स से ही तंग आकर उन्होंने ₹20,000 में अपनी पुश्तैनी जमीन बेच दी और फिर मिले पैसों को अपने तीन बेटों चंदूभाई वीरानी, नेक जी भाई वीरानी और भीखूभाई वीरानी को बाँट दिया ताकि वो इनसे कोई व्यापार शुरू कर सकें। पिता से पैसे मिलते ही 15 साल के चंदू भाई अपने दोनों भाइयों को लेकर राजकोट चले गए और वहां उन्होंने एग्रीकल्चरल प्रोडक्ट्स और फार्म इक्विपमेंट का व्यापार शुरू किया। अब डीलर को भी पता था की इन्हें बिजनेस का कोई खास नॉलेज है नहीं इसीलिए उसने महंगे दामों पर इन्हें नकली फर्टिलाइजर बेच दिया। इस तरह से चंदू भाई का अपना पहला वेंचर दो सालों के अंदर ही बंद हो गया और तीनों भाई सड़क पर आ गए। 

अब दोस्तों यहां से गांव लौटने का तो कोई मतलब था नहीं क्योंकि वहां कुछ बचा ही नहीं था। इसलिए ये लोग राजकोट में रहकर ही काम ढूंढने लगे। लेकिन क्योंकि ये ज्यादा पढ़े लिखे नहीं थे इसलिए इन्हें कोई अच्छी जॉब नहीं मिल पाई और इस टाइम पर फाइनेंशियल ट्रबल भी इतने ज्यादा बढ़ गए थे की वो अपने घर का किराया जो सिर्फ ₹50 था वो भी पे नहीं कर पा रहे थे और इसकी वजह से मकान मालिक ने भी उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। हालांकि कुछ समय बाद चंदूभाई को एस्ट्रो नाम के एक सिनेमा हॉल में चौकीदारी का काम मिला जिसकी सैलरी थी महीने के ₹90। हालांकि चौकीदारी के साथ साथ कभी वो मूवीज की पोस्टर्स लगा दिया करते थे तो कभी कैंटीन में भी काम कर लेते थे और फिर इस तरह से कम पैसों में ही सही लेकिन जैसे तैसे करके उनका गुजारा होने लगा। अब क्योंकि चंदू भाई ईमानदार बहुत थे इसीलिए कुछ ही टाइम के बाद उन्हें थिएटर की कैंटीन का ठेका मिल गया और अब वो इंटरवल के टाइम पर मसाला सैंडविच बनाकर लोगों में बेचने लगे। ये मसाला सैंडविच लोगों को खूब पसंद आया जिससे की चंदू भाई ने थोड़ा प्रॉफिट भी कमा लिया था और जब हालात थोड़े बेहतर हुए तो 1982 में चंदू भाई ने गांव से अपनी पूरी फैमिली को राजकोट बुला लिया और अब फैमिली के सभी मेंबर्स एक साथ मिलकर इस काम को आगे बढ़ाने लगे।

पर दोस्तों एक बहुत बड़ी प्रॉब्लम यह थी की उनका सैंडविच आसपास में पॉप्युलर तो बहुत हो गया था लेकिन जो भी सैंडविच शाम में बच जाते थे उनमें अगले दिन फंगस लग जाता और वह पूरी तरह से बर्बाद हो जाते थे और इन डेली के नुकसान से चंदू भाई भी अब परेशान रहने लगे और फिर इसी परेशानी के चलते उन्होंने सोच विचार करना शुरू किया की आखिर ऐसा क्या बेचा जाए जो की कई दिनों तक खराब ना हो। और दोस्तों इसी दौरान चंदू भाई को पोटैटो वेफर्स बेचने का आइडिया आया। चंदू भाई ने यह आलू के पतले चिप्स किसी वेंडर से खरीदने की डील की और अपने कैंटीन में बेचने लगे। लेकिन आगे चलकर इस बिजनेस में भी उन्हें यह प्रॉब्लम फेस करनी पड़ी की वेंडर टाइम पर उन्हें सप्लाई ही नहीं करता था और फिर जब लोग इंटरवल में आकर चिप्स मांगते तो कई बार वह कैंटीन में अवेलेबल ही नहीं होते थे। कभी सप्लाई में डिले और कभी टूटे फूटे पोटैटो वेफर्स की वजह से चंदू भाई बहुत ज्यादा तंग आ गए और फिर उन्होंने सोचा की अब वो किसी वेंडर के भरोसे ना रहकर खुद का ही चिप्स बनाकर बेचेंगे। उस टाइम पर चंदूभाई के पास 10 हज़ार रुपए की सेविंग्स थी और इन्हीं पैसों की ही मदद से उन्होंने 1982 में अपने बरामदे में एक छोटा सा टीन शेड लगाया और रात में कैंटीन बंद करने के बाद पोटैटो वेफर्स खुद ही बनाने लगे। 

शुरुआती समय एक्सपीरियंस ना होने की वजह से काफी मुश्किलों से भरा रहा क्योंकि इनके चिप्स कभी जल जाते तो कभी नरम ही रह जाते थे। लेकिन कुछ दिनों की मेहनत के बाद आखिरकार इन्होंने परफेक्ट पोटैटो वेफर्स बनाना सीख ही लिया। अब घर पर ही इन चिप्स को बनाने की वजह से चंदूभाई क्वालिटी को भी कंट्रोल कर पाए। जिससे की इनकी बिक्री काफी तेजी से बढ़ने लगी। इनके पोटैटो वेफर्स की लोकप्रियता को देखकर थिएटर ओनर ने चंदूभाई के साथ में पार्टनरशिप कर ली और जल्द ही ये तीन अलग अलग थियेटर की कैंटीन को भी चलाने लगे। इस तरह से अब चंदूभाई का काम निकल पड़ा और इनके पोटैटो वेफर्स की डिमांड भी बढ़ती ही चली गई। कुछ ही समय में इन्होंने 25 से 30 मर्चेंट्स को भी अपने चिप्स सप्लाई करने शुरू कर दिए और फिर धीरे धीरे ये पूरे राजकोट में पसंद किए जाने लगे। लेकिन दोस्तों, मार्केट में और भी कई सारे लोग थे जो कि वेफर्स बनाकर बेच रहे थे। ऐसे में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए चंदूभाई ने 1984 में अपने पोटैटो वेफर्स को एक नाम देने की सोची और फिर नाम का आइडिया उन्हें उनके कैंटीन के बगल में मौजूद एक हनुमान मंदिर बालाजी से मिला। और फिर इस तरह से बालाजी वेफर्स नाम के अंदर उनके ये पोटैटो वेफर्स आने लगे। लेकिन ये तो बस अभी शुरुआत थी क्योंकि इतने सारे कैंटीन और मर्चेंट्स से जुड़ने के बाद इनके वेफर्स की डिमांड और भी ज्यादा बढ़ने लगी। और एक समय तो ऐसा आया की परिवार का हर सदस्य दिन रात मेहनत करके भी डिमांड को फुलफिल नहीं कर पा रहा था। ऐसे में चंदूभाई ने सोचा कि क्यों ना वेफर्स बनाने वाली मशीन लगाई जाए ताकि कम समय में ज्यादा से ज्यादा प्रॉडक्शन किया जा सके। इसी सोच के साथ जब वो मशीन खरीदने पहुंचे तो उन्हें पता चला की ये तो बहुत ही ज्यादा महंगी है लेकिन इतने पैसे तो उनके पास थे ही नहीं। तो आखिर अब क्या किया जाए। काफी सोचने समझने के बाद उन्होंने मशीन की फंक्शनिंग को समझना शुरू किया और जब उन्हें समझ आ गया की ये काम कैसे करती है तो इन्होने करीब पाँच हज़ार रूपए में बाजार से अलग अलग पार्ट्स खरीद कर खुद ही अपने लिए पोटैटो पीलिंग और चॉपिंग मशीन बना डाली। और दोस्तों अगले कुछ सालों तक इसी मशीन के सहारे ही इनका काम चलता रहा और इनका व्यापार भी ग्रो करता गया। राजकोट में एक्सपेंशन के बाद अब चंदूभाई चाहते थे की इनके वेफर्स देश के बाकी एरियाज में भी पॉप्युलर हों। लेकिन इसके लिए जरूरत थी एक बड़े लेवल पर प्रॉडक्शन की। इसीलिए 1989 में इन्होंने बैंक से करीब लाख रुपए का लोन लिया और गुजरात का सबसे बड़ा पोटैटो वेफर्स प्लांट खोला। हालांकि, उनका यह कदम काफी रिस्की था क्योंकि उस दौर में बड़े इन्वेस्टर्स या फिर अमीर लोग ऐसे नए वेंचर्स में इन्वेस्ट करने से कतराते थे। ऐसे में अगर लोन लेने के बाद भी बिजनेस नहीं चला तो फिर लॉस का सारा बोझ उन्हें खुद ही उठाना पड़ता। लेकिन दोस्तों ऐसा समय आया ही नहीं क्योंकि गुजरते वक्त के साथ इनका मार्केट शेयर और कस्टमर्स बढ़ते ही चले गए। इसके बाद आया साल 1992, जब इन्होंने अपने बिजनेस को एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के रूप में रजिस्टर कराया और साथ ही अपने मैन्युफैक्चरिंग प्रोसेस को ऑटोमेट करने के लिए एडवांस्ड टेक्नोलॉजी वाले मशींस का यूज करना शुरू कर दिया। 

क्योंकि चंदूभाई का मानना था कि भले ही मशीन महंगी होती है लेकिन वो ह्यूमन एरर को कम करने के साथ साथ कंसिस्टेंट क्वालिटी भी मेंटेन करती है। इसके अलावा इन्होंने बिजनेस में अलग अलग रोल्स और रिस्पांसिबिलिटीज को भी बांट दिया, जिससे बिजनेस ऑपरेशंस को मैनेज करना आसान हो गया। क्योंकि अब हर किसी को अपना काम पता होता था और फिर आगे चलकर अपना डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क मजबूत करने के बाद से तो चंदूभाई की कंपनी बालाजी लोकल से उठकर पहले रीजनल और फिर नेशनल लेवल का ब्रांड बन गया। हालांकि उस टाइम मार्केट में अंकल चिप्स, सिंबा और बिन्नी जैसे कई सारे बड़े बड़े ब्रांड थे, जिनके सामने किसी भी नए प्लेयर के लिए अपनी जगह बनाना बिल्कुल भी आसान नहीं था। लेकिन बालाजी ने अपनी मेहनत, लगन और बेहतरीन क्वालिटी के जरिए अपने प्रोडक्ट्स प्रॉडक्ट्स को मार्केट में पॉप्युलर बना दिया, क्योंकि जहां उनके कंपीटीटर अभी भी ट्रेडिशनल तरीके से चिप्स बना रहे थे। बालाजी ने इन्नोवेटिव तरीके को अपनाकर मार्केट में अपने ब्रांड को मजबूती से एस्टेब्लिश कर लिया था। और दोस्तों पता है इनके बढ़ते ग्रोथ को देखते हुए एक मल्टीनेशनल कंपनी ने ऑफर किया की चंदू भाई चार हज़ार करोड़ रुपए में अपनी कंपनी को बेच दें। लेकिन चंदूभाई ने इस डील से साफ इनकार कर दिया। इसके कुछ समय के बाद बालाजी पोटैटो वेफर्स के अलावा नमकीन और कई दूसरे स्नैक्स भी बनाने लगे और इनके टेस्ट को भी लोगों ने खूब सराहा। जिससे धीरे धीरे ये गुजरात से निकलकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और इनके ही जैसे कई सारे स्टेट्स में अपने पैर जमाने लगे। इस एक्सपेंशन के साथ ही बालाजी इस बात का भी ख्याल रख रहे थे की कंपनी जो बना रही है वो लोगों की पसंद के अकॉर्डिंग है या फिर नहीं। क्योंकि चंदूभाई को बहुत अच्छे से पता था की गुजरात के लोगों को जो फ्लेवर पसंद है जरूरी नहीं की महाराष्ट्र, राजस्थान या फिर यूपी में वही पसंद आए। इसीलिए ये इस तरह के भी स्नैक्स को बनाने लगे जो की लोकल टेस्ट को जस्टिफाई कर सके। यह काम प्रॉपर तरीके से होता रहे इसके लिए इन्होने अलग अलग स्टेट्स में अपनी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट सेटअप की जिनमें से तीन गुजरात के राजकोट, वलसाड और वड़ोदरा में तो वहीं एक मध्य प्रदेश के इंदौर में लोकेटेड है और इन मैन्युफैक्चरिंग यूनिट की कैपेसिटी हर दिन एक हज़ार क्विंटल पोटैटो वेफर्स और पाँच हज़ार क्विंटल नमकीन बनाने की है जो की दिखाती है की इन्होंने कितना बड़ा प्रोडक्शन सेटअप तैयार किया है। अलग अलग जगह पर फैक्ट्री लगाने का फायदा यह हुआ की यह लोकल मार्केट को बेहतर तरीके से सर्व करने लगे जो की इनके मार्केट शेयर को बढ़ाने में काफी मददगार साबित हुआ। यही वजह है की 2006 में बालाजी वेफर्स ने गुजरात के पोटैटो वेफर्स मार्केट का 90% हिस्सा अपने नाम कर लिया था और फिर इसके बाद से इनकी ग्रोथ को कोई भी नहीं रोक सका। हालांकि तभी अचानक 2011 में कुछ ऐसा हुआ जिसने कंपनी की मुसीबतें बढ़ा दी। असल में बालाजी के सबसे बड़े कॉम्पिटिटर पेप्सिको ने इनके ऊपर केस फाइल कर।

2) https://youtu.be/FkWSRGvgz4Y?si=a9UPXwvgiGxaptMO

दोस्तों क्या आपको पता है बिस्किट्स को हिंदू धर्म के लोग खाने से दूर भागते थे। पर क्यों? यह तो हम आगे जानेंगे। लेकिन पार्ले जी ने आने के बाद लोगों की मानसिकता को बदला और अब यह हम सभी के दिलों पर राज करता है। तो दोस्तों सुबह की चाय से लेकर ऑफिस की गॉसिप्स तक हर कदम पर हमारा साथ देने वाले इस बिस्कुट ब्रांड को कैसे एक गरीब टेलर ने बनाया। आज के इस वीडियो में हम सब कुछ डिटेल में जानने वाले हैं। और हां हम यह भी जानेंगे की कैसे पारले ने अपना सीक्रेट फॉर्मूला सभी को बांट दिया और किस तरह इस ब्रांड ने करीब 25 सालों तक अपने बिस्कुट के पैकेट का रेट ₹1 भी नहीं बढ़ाया। पारले जी शायद ही कोई ऐसा भारतीय होगा जिसने चाय में यह बिस्कुट डुबोकर ना खाया हो। और हां कमाल की बात तो यह है की जितना लगाव आपको इस बिस्कुट से है ना उतना ही हमारे मम्मी पापा और दादा दादी को भी है। यही वजह है की इसे एक बिस्कुट नहीं बल्कि एक इमोशन कहा गया है और इस इमोशन की नीव रखी गई थी ब्रिटिश राज में। जब बिस्कुट खाना हम भारतीयों के लिए एक सुनहरे सपने से ज्यादा कुछ भी नहीं था लेकिन वह कैसे इसे समझने के लिए हमें लेट नाइट सेंचुरी में चलना होगा। एक्चुअली उस टाइम पर मार्केट में गिने चुने कुछ बड़े बड़े दुकानों में बिस्कुट से भरा हुआ एक खास किस्म का चौकोर सा दिखने वाला यह टिन का डिब्बा मिलता था, जिस पर बड़े बड़े टेक्स्ट में लिखा होता था हंटले एंड पामर। इस डिब्बे को दुकान से खरीद कर सीधे अंग्रेजों के महल में पहुंचा दिया जाता था, जिसे बड़े बड़े अंग्रेजी अफसर सुबह और शाम की चाय की चुस्कियों के साथ में एन्जॉय किया करते थे और इंडियंस उसे दूर से ही देख कर सोचा करते थे की आखिर यह कौन सी नई इजाद है। जल्दी यह बिस्कुट हमारे राजा महाराजा और कुछ अमीर इंडियंस के घरों तक भी पहुंच गए लेकिन इनकी कीमत इतनी ज्यादा थी की मिडिल क्लास या गरीब लोग इसे खरीदने के बारे में सोचने से भी कतराते थे। अब यह बिस्कुट अमीरों की चाय का साथी तो बन गया था लेकिन बहुत से अपर क्लास हिंदू जो इसे अफोर्ड तो कर सकते थे फिर भी अपने घर में लाने या फिर खाने से दूर भागते थे। क्योंकि इन बिस्किट्स को बनाने के लिए बेकर्स अंडे का इस्तेमाल किया करते थे। लेकिन बाद में इस समस्या का समाधान लेकर आए लाला राधा मोहन, जिन्होंने 1998 के दौरान दिल्ली में हिंदू बिस्किट्स नाम की एक कंपनी की शुरुआत की, जिसका मकसद हिंदुओं के बीच बिस्किट्स को पॉप्युलर बनाना था। इस काम के लिए कंपनी ने सिर्फ ब्राम्हणों और अपर कास्ट के हिंदुओं को ही हायर किया, ताकि उनके बिस्किट्स कास्ट कॉन्शियस हिंदुओं की नजर में भी एक्सेप्टेबल हो सके। पहले ही साल में कंपनी ने अपने बिस्किट्स का एडवरटाइजमेंट दिया, जिसमें बताया गया था की बिस्किट्स की पैकिंग से लेकर पैकेजिंग तक का पूरा काम सिर्फ अपर क्लास हिंदुओं के हाथों से ही किया जाता है। साथ ही इन बिस्किट्स को सिर्फ दूध से तैयार किया जाता है और पानी का एक भी कतरा नहीं मिलाया जाता। लेकिन हिंदू बिस्किट्स की बढ़ती हुई पॉपुलैरिटी के बाद से कई और लोगों ने भी इस नाम के बिस्किट्स को बेचना शुरू कर दिया। जिससे की असली हिंदू बिस्कुट को काफी नुकसान हुआ और वो ब्रिटानिया कंपनी के साथ में मर्ज हो गया। हालांकि दोस्तों मार्केट में इतनी सारी कॉपीज आने के बाद भी बिस्किट्स के प्राइस में कभी भी इतनी कमी नहीं आई कि वो गरीब के हाथों में पहुंच पाए। फिर आया 7 अगस्त 1905 का दिन जब गांधी जी के नेतृत्व में स्वदेशी आंदोलन की नींव रखी गई और लोगों ने विदेशी चीजों का बायकॉट करके अपने देश में बनी हुई चीजों को अपनाना शुरू कर दिया। साथ ही इस मूवमेंट को सपोर्ट करने के लिए कई भारतीय लोगों ने लोकल बिजनेस भी शुरू किए, ताकि फॉरेन प्रॉडक्ट्स पर डिपेंडेंसी को कम किया जा सके। और दोस्तों इसी बीच गुजरात के एक टेलर मोहनलाल दयाल जी भी इस आंदोलन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भी स्वदेशी आंदोलन में उतरने की इच्छा जताई। जिसके लिए उन्होंने सोचा की क्यों ना देश में अपनी खुद की टॉफी और चॉकलेट की कंपनी खोली जाए। क्योंकि इसके जरिए वो अंग्रेजों को फाइनेंशियली नुकसान तो पहुंचा ही सकते थे साथ ही इन टॉफी का टेस्ट उन गरीब बच्चों तक भी पहुंचा सकते थे जो की इसे अमीर बच्चों के हाथों में देखकर सिर्फ ललचा कर रह जाते थे। लेकिन यहां पर सबसे बड़ा सवाल था कि आखिर इन टॉफी को बनाए कैसे? क्योंकि उस टाइम तक इंडिया में कोई भी ऐसा रिसोर्स अवेलेबल नहीं था जहां से वो इसे बनाने का तरीका सीख सके। इसीलिए मोहनलाल दयाल ने एक बहुत बड़ा फैसला लिया और इस काम को सीखने के लिए 1929 में जर्मनी चले गए। कुछ समय तक वहां उन्होंने टॉफी मेकिंग तकनीक सीखी और जब इंडिया वापस आने लगे तो अपने साथ एक टॉफी बनाने वाली मशीन भी लेकर आए। मोहनलाल दयाल ने वापस आने के बाद से मुंबई के विले पार्ले इलाके में एक पुरानी बंद पड़ी फैक्ट्री को खरीदा और यहीं पर अपने मशीन को फिट किया। शुरुआत में कंपनी में सिर्फ 12 लोग काम करते थे जो की मोहनलाल के फैमिली मेंबर्स ही थे और अपनी कैपेबिलिटीज के अकॉर्डिंग इनमें से किसी ने मैनेजर का पद संभाल लिया। किसी ने कॉफी मेकर का और कोई पैकेजिंग और सप्लाई को देखने लगा। अब शुरुआत में किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया की कंपनी का कोई नाम भी होना चाहिए और इसीलिए काफी समय के बाद इसकी लोकेशन यानी विले पार्ले के नाम पर ही कंपनी का नाम पार्ले रखा गया। इस कंपनी का पहला प्रोडक्ट था एक ऑरेंज कैंडी जो कि उस टाइम पर काफी पॉप्युलर हुआ था। लेकिन दोस्तों मार्केट में अफॉर्डेबल बिस्किट्स ना होने की वजह से मोहनलाल दयाल ने इस गैप को फिल करने की सोची और साल 1939 में पारले ने पहली बार अपने बिस्किट्स को मार्केट में उतारा जिसका नाम रखा गया था पार्ले ग्लूको। सस्ते दाम और अच्छे क्वालिटी की वजह से यह बिस्किट बहुत जल्द लोगों के बीच काफी पॉप्युलर हो गया और सेकंड वर्ल्ड वॉर के दौरान भी इंडियन और ब्रिटिश दोनों ही आर्मी ने इस बिस्कुट को खूब कंज्यूम किया था। जब 1947 में भारत आजाद हुआ तो उस समय अचानक से गेहूं की कमी हो गई, जिसके चलते पारले को अपने ग्लूको बिस्किट के प्रोडक्शन को रोकना पड़ गया। क्योंकि इसका मेन इनग्रेडिएंट ही गेहूं था। लेकिन बाद में इस संकट से उबरने के लिए पारले ने जौ से बने हुए बिस्किट बनाना शुरू किया और एक एडवरटाइजमेंट में स्वतंत्रता सेनानियों को नमन करते हुए अपने कंज्यूमर्स से अपील की कि जब तक गेहूं की सप्लाई नॉर्मल नहीं हो जाती तब तक जौ से बने बिस्किट्स का इस्तेमाल करें। खैर बाद में हालात नॉर्मल हो गए और पारले फिर से जौ की जगह गेहूं का इस्तेमाल करने लगा। अब अगले कुछ सालों तक तो सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा, लेकिन 1960 के करीब कई सारी और भी कंपनीज ने ग्लूको बिस्कुट के नाम से ही अपने बिस्किट को लॉन्च करना शुरू कर दिया। अब इससे कंज्यूमर के बीच में कन्फ्यूजन बढ़ने लगी कि आखिर ओरिजिनल ग्लूको बिस्किट है कौन सा और यही वजह थी कि इस टाइम पर पारले की सेल्स लगातार गिर रही थी। लेकिन दोस्तों अपने गिरते हुए सेल्स को देखते हुए कंपनी ने एक बहुत ही स्ट्रैटेजिक मूव लिया और अपनी ब्रांडिंग को इंप्रूव करने के लिए काम करने लगे। इसके लिए सबसे पहले तो इन्होंने नई पैकेजिंग बनाने का फैसला किया। जिसके बाद से पारले का बिस्कुट एक पीले बैक पेपर में लपेटकर आने लगा। इसके ऊपर लाल रंग की पार्ले ब्रांडिंग के साथ साथ एक छोटी लड़की की तस्वीर भी लगी थी और इस लड़की के इलस्ट्रेशन को एडवरटाइजिंग एजेंसी एवरेस्ट ब्रांड सॉल्यूशन के मगनलाल दैया ने तैयार किया था। इस नई ब्रांडिंग ने बच्चों और उनके पेरेंट्स को खूब अट्रैक्ट किया। साथ ही बाकी के ब्रांड्स के बीच पार्ले अपनी एक अलग छाप छोड़ने में भी कामयाब हो गया। इसके बाद से साल 1982 में कंपनी ने पारले ग्लूको को पारले जी के रूप में री पैकेज किया, जिसमें जी का मतलब था ग्लूकोज। और इसी साल यानी 1982 में ही पारले जी का पहला टीवी कमर्शियल आया जिसमें एक दादा जी अपने नाती पोतों के साथ गाते हुए नजर आ रहे थे। स्वाद भरे शक्ति भरे पारले जी से चाहत अपनी यही है जी अपनी भी स्वाद। भरी शक्ति भरे बरसों से पारले जी। इसके बाद से 1998 में पारले जी को शक्तिमान के रूप में ब्रांड एंडोर्समेंट मिला और अगर आप नाइंटीज के किड हैं तो फिर यह बताने की जरूरत ही नहीं कि बच्चों के बीच शक्तिमान कितना ज्यादा पॉप्युलर था। ऐसे में अपने फेवरेट सुपरहीरो शक्तिमान की वजह से बच्चों में पारले जी खूब पसंद किया जाने लगा। इसके बाद से जी माने जीनियस, हिंदुस्तान की ताकत, रोको मत रोको मत जैसी टैगलाइन ने पारले जी को हमेशा चर्चा में बना कर रखा। अब दोस्तों आज के टाइम पर पारले का एक बहुत बड़ा पोर्टफोलियो है जिसके अंदर कई तरह के बिस्किट्स, कैंडीज और नमकीन आते हैं और काफी सारे लोगों को लगता है कि बिसलरी, बेबी, फ्रूटी और एप्पल फिश भी पार्ले के ही अंदर आता है। लेकिन क्या सच में ऐसा है? अब इसे समझने के लिए पहले हमें मोहनलाल जी के परिवार को एक बार देखना होगा। एक्चुअली मोहनलाल जी के पांच बेटे थे, जिनमें से बड़े बेटे जयंतीलाल चौहान ने पारिवारिक बिजनेस से अलग होने का फैसला किया और उन्होंने पारले एग्रो की शुरुआत की और आज बेले फ्रूटी रोटी और फ्रिज जैसे पॉप्युलर प्रॉडक्ट्स इसी कंपनी के अंडर आते हैं। 20 20 के दौरान जयंतीलाल चौहान ने अपने इस बिजनेस को अपने दो बेटों प्रकाश चौहान और रमेश चौहान में स्प्लिट कर दिया था, जिसके बाद से पारले एग्रो प्रकाश चौहान के हाथों में आ गई और रमेश चौहान के अंडर बिसलरी ब्रांड आता है। इस तरह से जयंतीलाल चौहान के परिवार से अलग होने के बाद पारले प्रॉडक्ट्स के मालिक बने मोहनलाल जी के चार बेटे माणिक्य लाल, पीतांबर, नरोत्तम और कांतिलाल चौहान। और दोस्तों, शुरुआत में तो पारले अपने सस्ते और अच्छे क्वालिटी की वजह से बिस्कुट मार्केट को पूरी तरह से डोमिनेट कर रहा था। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि करंट सिनेरियो में भी पारले का इंडिया में फोर्टी परसेंट से ज्यादा मार्केट शेयर है जो की किसी भी बिस्कुट ब्रांड में सबसे ज्यादा है। ऐसे में यह जानना काफी इंटरेस्टिंग है की करीब 100 साल बाद भी मार्केट को डोमिनेट करने के लिए पारले ने कौन कौन से टैक्टिक्स को अपनाया। तो दोस्तों असल में कंपनी के पास पारले जी के रूप में एक हीरो प्रोडक्ट तो है ही लेकिन इसमें मिली भारी सफलता के बावजूद कभी भी यह हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठे। कंपनी ने बहुत पहले ही मार्केट पर रिसर्च करके लोगों की पसंद और नापसंद को समझना शुरू कर दिया था। जब इन्होंने अपने पार्ले ग्लूको बिस्किट को लॉन्च किया था तो उसी दौरान उन्हें एहसास हो गया था की जरूरी नहीं है की मीठी चाय के साथ हर किसी को मीठे बिस्किट से पसंद आए। बल्कि काफी सारे लोग चाय से नमकीन खाना पसंद करते हैं। इसीलिए 1938 में पारले ने मोनैको बिस्किट को भी लॉन्च कर दिया था। बच्चों और यंगस्टर्स को अट्रैक्ट करने के लिए 1956 में कंपनी ने पार्ले फिलिंग्स को भी लॉन्च किया था जो की एक बहुत ही यूनिक प्रोडक्ट था और इसके छोटे छोटे स्क्वायर शेप वाले नमकीन उस टाइम पर खूब पॉपुलर हुए थे। इसके बाद से 1963 में पार्ले अपनी टॉफी लेकर आया। किसने इसे आप में से भी काफी सारे लोगों ने खाया ही होगा। 1966 में पारले ने पॉप्स को लॉन्च किया, जिसकी रंग बिरंगी कैंडीज बच्चों के बीच खूब पसंद की गई। इसके अलावा पार्ले ने मेलोडी, ट्रैक जैक, ट्वेंटी ट्वेंटी, मैजिक, मिल्क शक्ति, मैंगो बाइट

3) https://youtu.be/ubfG2XUbz1s?si=PVDnsDBGt6sOGuNa

कोई कंपनी ऐसे भी हो सकती है क्या, जिसके प्रॉडक्ट्स का इस्तेमाल दुनिया की आधी आबादी लगभग हर दिन करती हो? चाहे आप सुबह उठते ही क्लोज़ अप से ब्रश करें, नहाते समय लाइफबॉय या लक्स का इस्तेमाल करें, बालों में सनसिल्क या क्लीनिंग प्लस लगाएं या फिर कपड़े धोने के लिए सर्फ, व्हील या रिन का यूज करें और अगर नहा कर निकल गए हों तो फिर पॉन्ड्स लगाइए या फिर ग्लो एंड लवली प्रॉडक्ट एक ही कंपनी का बिकने वाला है। नाम है हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड। और सिर्फ आप ही नहीं बल्कि आप जैसे साढ़े 3 अरब लोग हर रोज यूनिलीवर का कोई ना कोई प्रॉडक्ट इस्तेमाल करते हैं। क्योंकि यह कंपनी आज दुनिया के 190 से भी ज्यादा देशों में ऑपरेट करती है। या फिर हम कह सकते हैं कि पूरी दुनिया में ही क्योंकि टोटल देश 195 है। पर सवाल ये उठता है की साबुन बेचने से शुरू हुई एक मामूली सी कंपनी आखिर इतनी बड़ी कैसे हो गई कि आज पूरी दुनिया पर राज कर रही है। नाम से स्वदेशी लगने वाली यह कंपनी क्या वाकई में इंडियन है या फिर इसकी सच्चाई कुछ और ही है। और सबसे जरूरी बात इस मुकाम तक पहुंचने के लिए HCL को क्या क्या स्ट्रगल्स और लीगल बैटल्स फेस करने पड़े हैं। सब कुछ हम बहुत डिटेल में जानने वाले हैं आज के इस कहानी में। 

तो दोस्तों हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड को पुरी तरह से समझने के लिए हमें समय का पहिया घुमाकर 1885 में जाना होगा। जहां ब्रिटेन में रहने वाले दो भाई विलियम हेसकेथ लीवर और जेम्स डॉर्सी लीवर एक साथ मिलकर लीवर ब्रदर्स नाम की एक कंपनी शुरू करते हैं। यह कंपनी सनलाइट नाम से साबुन बनाती थी जो की इंग्लैंड के साथ साथ इसके आसपास के देशों में भी काफी पॉपुलर था। असल में यह साबुन एक क्लीनिंग प्रोडक्ट होने के साथ साथ समाज में हाइजीन और हेल्थ का भी मैसेज देता था जो की लोगों को खूब पसंद आता। इसके बाद 1888 में कोलकाता के पोर्ट पर सनलाइट साबुन से भरे बक्से उतारे जाते हैं और यहीं से लीवर ब्रदर्स की इंडिया में एंट्री होती है। अभी कुछ ही समय बीता था की यह साबुन भारतीय लोगों के बीच में भी खूब पॉपुलर हो जाता है और इसी कामयाबी को देखते हुए 1885 में लीवर ब्रदर्स यहां अपने दूसरे प्रोडक्ट लाइफबॉय को भी लॉन्च कर देते हैं। और दोस्तों इन दोनों ही प्रोडक्ट्स के लिए कंपनी को लोगों से बहुत ही अच्छा फीडबैक मिलता है और इस कामयाबी को देखते हुए ही लीवर ब्रदर्स अपने इस बिजनेस को फैलाने में लग जाते हैं। लेकिन इनके सामने सबसे बड़ी प्रॉब्लम आती है रॉ मटेरियल खासकर पाम ऑयल की जिसका इस्तेमाल साबुन बनाने के लिए किया जाता था।

चलिए फिलहाल अब हम आते हैं नीदरलैंड्स में जहां इस टाइम पर दो बिजनेसमैन Jurgens और Van Den Bergh मार्जरीन का बिजनेस कर रहे होते हैं। बेसिकली मार्जरीन एक प्लांट बेस्ड फैट होता है जिसे हमारे देश में डालडा के नाम से जाना जाता है। उस टाइम पर मार्जरीन के बिजनेस में बहुत ज्यादा कंपटीशन हुआ करता था। यही वजह थी की Jurgens और Van Den Bergh 1927 में अपनी अपनी कंपनियों को एक साथ मर्ज कर देते हैं और फिर जो नई कंपनी बनाई जाती है उसका नाम रखा जाता है मार्जरीन। और फिर इसके दो साल बाद सितंबर 1929 में लीवर ब्रदर्स और मार्जरीन एक दूसरे के साथ हाथ मिलाकर यूनिलीवर लिमिटेड की शुरुआत कर देते हैं। अब आप सोच रहे होंगे की साबुन बनाने वाली कंपनी और मार्जरीन बनाने वाली कंपनी का आपस में कनेक्शन क्या हो सकता है। असल में दोस्तों भले ही ये कंपनी अलग अलग इंडस्ट्रीज से थी लेकिन इन दोनों के बीच में एक चीज कॉमन थी पाम ऑयल। साबुन बनाने के लिए भी पाम ऑयल की जरूरत होती थी और मार्जरीन के लिए भी। लेकिन उस टाइम पर पाम ऑयल की भारी किल्लत थी और इसे एक बड़े लेवल पर कलेक्ट करना बहुत ज्यादा मुश्किल काम हुआ करता था। ऐसे में इन दोनों कंपनियों ने अपने प्रॉफिट और रिसोर्सेज को मिलाकर पाम ऑयल प्लांटेशन का फैसला लिया और फिर इस कदम के साथ ही यूनिलीवर लिमिटेड का ग्लोबल एक्सपेंशन काफी तेज हो गया। 

कुछ ही सालों के अंदर ये कई नई नई कंट्रीज में एंटर कर चुके थे और इंडिया में तो वो अपना प्रोडक्ट एक्सपोर्ट कर ही रहे थे। मतलब की इस टाइम पर एक तरफ भारत में अंग्रेजों से आजादी के लिए संघर्ष चल रहा था लेकिन दूसरी तरफ ब्रिटिश कंपनियां यहां अपने बिजनेस को मजबूत करने में लगी हुई थी। और फिर इसी टाइम पीरियड के ही आसपास यानी 1931 में यूनिलीवर भारत के अंदर अपनी पहली कंपनी इस्टैबलिश्ड करता है जिसका नाम हिंदुस्तान वनस्पति मैन्युफैक्चरिंग कंपनी रखा जाता है। यह कंपनी डालडा नाम से वनस्पति घी बनाती थी जो की असली देसी घी का सस्ता अल्टरनेटिव था। अब डालडा इंडिया में कितना सक्सेसफुल हुआ था शायद यह एक्सप्लेन करने की मुझे जरूरत नहीं होगी हालांकि डालडा को इंडिया में जो सक्सेस मिली थी वहां तक पहुंचाना यूनिलीवर के लिए आसान बिल्कुल भी नहीं था क्योंकि इस दौरान इंडिया में स्वदेशी मूवमेंट अपने चरम पर था। जिसके तहत महात्मा गांधी और उनके सपोर्टर्स ने ब्रिटिश प्रोडक्ट्स का बायकॉट करना शुरू कर दिया था। स्वदेशी मूवमेंट की वजह से साबुन, एडिबल ऑयल और इन जैसे बहुत से प्रोडक्ट्स भारत के अंदर ही बनाए जाने लगे, जिससे की थोड़े लो क्वालिटी के होने के बावजूद भारतीय लोग इन्हें ही यूज करते थे। और दोस्तों इस आंदोलन की वजह से यूनिलीवर के सेल्स में भी भारी गिरावट आ गई थी और फिर यही सब देखते हुए यूनिलीवर ने लोकल मैन्युफैक्चरिंग की तरफ कदम बढ़ाया। मई 1934 में उन्होंने मुंबई के अंदर अपनी पहली फैक्ट्री खोली। ताकि इंडिया में मैन्युफैक्चरिंग और एंप्लॉयमेंट ऑपच्यरुनिटीज देकर बायकॉट के इन्फ्लुएंस को कम किया जा सके। इसके अलावा इंडिया में लोकल मैन्युफैक्चरिंग शुरू करने का एक रीजन यह भी था कि ब्रिटेन से इंपोर्ट करने की वजह से इनके साबुन की कीमत काफी बढ़ जाती थी और इस इंपोर्टेड प्रॉडक्ट को इंडिया के ज्यादातर लोग अफोर्ड नहीं कर पाते थे। इसलिए यूनिलीवर ने इस स्ट्रैटेजी की मदद से देसी पहचान बनाने की कोशिश की। साथ ही, कम कीमत में प्रॉडक्ट उपलब्ध कराकर इसने एक लार्ज कस्टमर बेस को टारगेट किया, जो कि कंपनी के लिए काफी प्रॉफिटेबल साबित हुआ। 

इसके बाद 1935 में उन्होंने इंडिया के अंदर अपनी तीसरी कंपनी यूनाइटेड ट्रेडर्स लिमिटेड की शुरुआत की, जो कि कपड़े, मेटल और केमिकल्स का इंपोर्ट एक्सपोर्ट करती थी। इसके बाद आया 1956, जब हिंदुस्तान वनस्पति मैन्युफैक्चरिंग कंपनी, लीवर ब्रदर्स इंडिया और यूनाइटेड ट्रेडर्स लिमिटेड इन तीनों को ही मर्ज करके हिंदुस्तान लीवर लिमिटेड का गठन किया गया। हालांकि जून 2 हज़ार 7 में यह नाम बदलकर हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड यानी कि एचयूएल कर दिया गया था। लेकिन इस मर्जर की कहानी उतनी सिंपल नहीं है, जितनी नजर आ रही है। क्योंकि देश को 1947 में आजादी मिल चुकी थी और उस समय भारत में फॉरेन कंपनीज के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया जा रहा था। विदेशी ओनरशिप पर नए नियम और कानून लगाए जा रहे थे, जिसके चलते बाहरी कंपनियों को अपने ऑपरेशंस में कई सारे बदलाव करने पड़े। इसी से ही परेशान होकर यूनिलीवर ने इन तीनों कंपनीज को आपस में मिला दिया और हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड में इंडियंस को 10 परसेंट इक्विटी दे दी गई, ताकि कंपनी के ऊपर लगा विदेशी ओनरशिप का धब्बा हटाया जा सके। साथ ही इन्होंने पहली बार प्रकाश टंडन नाम के एक ऐसे आदमी को कंपनी का डायरेक्टर बनाया जो की इंडिया से थे। इतना ही नहीं 1955 तक कंपनी में इतने सारे भारतीयों को हायर किया जा चुका था की इसके सिक्सटी फाइव परसेंट मैनेजर इंडिया के ही हुआ करते थे। इस तरह से कंपनी ने एक इंडियन ब्रांड के रूप में अपनी पहचान बनाने की कोशिश की और दोस्तों इन्हीं सभी स्ट्रैटेजिस के चलते ही आज भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो की हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड को एक इंडियन ब्रांड समझते हैं। जबकि आज भी यह यूनिलीवर पीएलसी नाम की एक ब्रिटिश कंपनी की सब्सिडियरी है। खैर, वापस कहानी पर आएं तो इन सभी स्ट्रैटेजिस की वजह से भारत एचयूएल के लिए एक बहुत ही प्रॉफिटेबल मार्केट साबित हो रहा था क्योंकि यहां कंपटीशन बहुत कम थी और पॉसिबिलिटीज बहुत ही ज्यादा। इसीलिए कंपनी अब एफएमसीजी सेक्टर को टेकओवर करने में लग गई। 1968 में इन्होंने सर्फ नाम से अपना वाशिंग पाउडर बनाया तो वहीं 1964 में अन्य घी और सनसिल्क शैम्पू को लॉन्च किया और फिर 1966 तक यह बेबी फूड सेगमेंट में भी एंटर कर चुके थे। हर साल नए प्रोडक्ट्स को लॉन्च करना, कंपनी को एक्वायर करना और नए नए सेक्टर्स को एक्सप्लोर करना मानो इनका मिशन बन गया था। सब कुछ उम्मीद से ज्यादा अच्छा चल रहा था। लेकिन इसके अगले ही साल कुछ ऐसा हुआ की कंपनी बंद होने के कगार पर पहुंच गई। एक्चुअली 1973 में सरकार ने साबुन और वनस्पति जैसे कई सारे प्रॉडक्ट्स पर प्राइस कंट्रोल लगा दिए ताकि इन्फ्लेशन को कम किया जा सके। इस दौर में चाहे भारतीय हो या विदेशी, हर तरह की कंपनियों के लिए बिजनेस करना बहुत मुश्किल हो गया था क्योंकि सरकार ने प्राइस को इतना कम कर दिया था कि ज्यादातर कंपनियां भारी लॉस में जाने लगी थी। इन लॉसेस को कवर करने के लिए उस टाइम कंपनी के चेयरमैन टी। थॉमस ने एक सस्ता साबुन मार्केट में उतारा, जिसका नाम था जनता। लेकिन ऐसा करने से भी नुकसान को कोई खास रिकवर नहीं किया जा सका। कुछ समय बाद इंडियन गवर्नमेंट ने इस प्राइस कंट्रोल को खुद ही हटा दिया, जो कि एचयूएल के लिए एक बहुत बड़ी राहत साबित हुई। क्योंकि टी। थॉमस का कहना था की अगर यह प्राइस कंट्रोल कुछ और समय तक चलता तो एचयूएल को भारत से एग्जिट लेना पड़ सकता था। खैर इस प्रॉब्लम से तो वह निकल गए लेकिन इसके बाद कुछ ऐसा हुआ जिसने कंपनी को और भी बड़ी प्रॉब्लम में डाल दिया। असल में 70 20 के दौरान सरकार ने एक पॉलिसी बनाई थी कि मल्टीनेशनल कंपनी को अपना मेजॉरिटी स्टेक यानी की 51 पर्सेंट से ज्यादा ओनरशिप भारतीयों के लिए छोड़नी होगी। यही वो पॉलिसी थी जिसकी वजह से कई बड़ी कंपनियों जैसे कोका कोला और सेल ने भारत से अपना बिजनेस हटा लिया था। लेकिन हिंदुस्तान यूनिलीवर अपने इस बसे बसाए साम्राज्य को छोड़कर नहीं जाना चाहता था। इसलिए उन्होंने किसी तरह से सरकार को कन्विंस कर लिया की उनकी फिफ्टी वन परसेंट की ओनरशिप उन्हीं के पास ही रहने दे। लेकिन सवाल तो यह है ना की आखिर यह चमत्कार हुआ कैसे? असल में सरकार ने यूनिलीवर के सामने यह शर्त रखी थी की अगर आप फिफ्टी परसेंट की हिस्सेदारी खुद रखना चाहते हैं तो आपको अपने बिजनेस के टर्नओवर का 60 परसेंट ऐसे काम पर खर्च करना होगा जिसमें भारत देश को फायदा हो। साथ ही आप जो भी सामान बनाएंगे उसका 10 परसेंट विदेशों में भी बेचेंगे। जिससे की इंडिया दुनिया के दूसरे देशों में भी नाम कमा पाए। और दोस्तों एचयूएल की वजह से इकॉनमी को बेहतर होता हुआ देख डील फाइनल की गई और मेजॉरिटी शेयर उन्हीं के पास ही रहने दी गई। इसके बाद 1972 से 1986 के बीच यूनिलीवर ने लिप्टन, ब्रुक, बॉन्ड और पॉन्ड्स जैसी कंपनीज को एक्वायर करके अपने ग्रुप में शामिल कर लिया था। अब एक तरफ तो।

4) https://youtu.be/S5z6NYRwH2k?si=9TJ8BnITJFwbE23E

घड़ी, डिटर्जेंट पाउडर और केक। पहले इस्तेमाल करे फिर विश्वास करे। दोस्तो, घड़ी डिटर्जेंट के इस टैगलाइन को तो आज हर कोई जानता है, लेकिन जब इस ब्रांड को शुरू किया गया था तब कंपनी के पास इतने पैसे भी नहीं थे की वो अपना एडवर्टाइजमेंट कर सके। इसीलिए दो भाइयों ने हिम्मत जुटाई और कभी पैदल तो कभी साइकिल से इसे घर घर जाकर बेचना शुरू किया। लेकिन जब घड़ी डिटर्जेंट मार्केट में आया तब इसे एक तरफ से निरमा से टक्कर मिल रही थी तो वहीं दूसरी तरफ इसके सामने हिंदुस्तान यूनिलीवर जैसा बड़ा जायंट सर्फ और व्हील के साथ में खड़ा था। लेकिन फिर घड़ी ने ऐसा किया क्या की ये आज इंडिया का वन ऑफ द लार्जेस्ट डिटर्जेंट ब्रांड बन गया। आखिर इस कंपनी ने कौन कौन से स्ट्रैटेजी अपनाई और ये सफर कितना स्ट्रगल से भरा रहा। चलिए सब कुछ जानते हैं आज के इस वीडियो में। तो दोस्तों अगर हम डिटर्जेंट की हिस्ट्री पर नजर डालें तो ग्लोबल लेवल पर इसकी शुरुआत वर्ल्डवाइड दो के टाइम पर ही हो गई थी। लेकिन तब यह इंडियन की पहुंच से काफी दूर था। लेकिन फिर आजादी के 10 साल बाद यानी 1957 में स्वास्तिक ऑयल मिल्स नाम की एक कंपनी ने सिंथेटिक डिटर्जेंट बनाना शुरू किया और इस तरह से भारत में इसकी शुरुआत तो हो गई लेकिन अब भी यह बहुत ही कम घरों में अपनी जगह बना पाया था। हालांकि 1959 में जब हिंदुस्तान यूनिलीवर ने इंडिया में अपना फेमस सर्फ एक्सेल लॉन्च किया तब इसे बहुत ही तेजी से एडवर्टाइज किया गया। जिसके चलते अब लोगों के बीच में डिटर्जेंट पाउडर काफी तेजी से पॉपुलर होने लगा। लेकिन हां अभी तक इंडिया की ज्यादातर जनसंख्या गरीब थी इसलिए सर्फ एक्सेल सिर्फ इलीट क्लास की ही फैमिली को टारगेट करता था। क्योंकि इसके डिटर्जेंट इतने एक्सपेंसिव थे कि इसे मिडिल या लोअर मिडिल क्लास अफोर्ड नहीं कर पाते थे। और फिर इसी प्रॉब्लम को ही समझते हुए गुजरात के करसन भाई पटेल ने निरमा डिटर्जेंट को लॉन्च किया था। जो की कुछ ही सेकंड्स में इंडिया का सबसे ज्यादा बेचे जाने वाला डिटर्जेंट ब्रांड बन गया था। अब दोस्तों निरमा की यह सक्सेस स्टोरी कानपुर के मुरलीधर और विमल कुमार ज्ञानचंदानी नाम के दो भाइयों तक पहुंची और इससे वह काफी इंस्पायर हुए। उन्होंने सोचा की क्यों ना अपने पिता के व्यापार को आगे बढ़ाया जाए जो कि उस समय ग्लिसरीन से साबुन बनाने का काम किया करते थे। इसी सोच के ही साथ 1987 में कानपुर के शास्त्री नगर में रहने वाले इन दोनों भाइयों ने फजलगंज फायर स्टेशन के पास डिटर्जेंट की एक छोटी सी फैक्ट्री खोली। जिसे नाम दिया गया था श्री महादेव सोप इंडस्ट्री और फिर इसे फैक्ट्री में ही बनाया गया सबसे पहला घरेलू डिटर्जेंट पाउडर। अब दोस्तों फजलगंज की यह फैक्ट्री भले ही छोटी थी पर इन भाइयों के अरमान काफी बड़े थे इसलिए वो पूरी मेहनत और जुनून के साथ काम में जुट गए। हालांकि लंबे समय तक उनका व्यापार नहीं चल पाया क्योंकि उनके सामने निरमा और हिंदुस्तान यूनिलीवर के व्हील जैसे कई सारे पॉपुलर प्रॉडक्ट्स थे, जिन्हें पछाड़ कर आगे निकल पाना बिल्कुल भी आसान नहीं था। हालांकि इस बात का अंदाजा उन्हें पहले से ही था, इसीलिए उन्होंने कभी भी धैर्य नहीं खोया और दुकानदारों से लेकर गली मोहल्ले में लोगों को डिटर्जेंट खरीदने के लिए मनाते रहे। हालांकि जब काफी कोशिशों के बाद भी मुनाफा नहीं हो पा रहा था तो वो समझ गए कि उन्हें कुछ ऐसा करना होगा जो बाकी की कंपनी नहीं कर रही हैं। उस दौर में जहां ज्यादातर वाशिंग पाउडर पीले या फिर नीले रंग के होते थे, इन्होंने सफेद रंग का वाशिंग पाउडर बनाकर बाजार में उतारने का फैसला किया। इसके अलावा ज्ञानचंदानी ब्रदर्स ने एक मजबूत और जुबान पर चढ़ जाने वाली टैगलाइन भी दी। पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें। यह टैगलाइन लोगों को बहुत पसंद आई और उन्होंने सोचा कि जब कंपनी को अपने प्रोडक्ट पर इतना भरोसा है तो फिर क्यों ना इसे हम एक बार आजमा कर ही देखें। और फिर जब लोगों ने इसका इस्तेमाल किया तो इस डिटर्जेंट की भर भर के झाग और सफेदी लोगों को खूब पसंद आई। अब कंज्यूमर्स का भरोसा इस प्रोडक्ट पर बढ़ने लगा और धीरे धीरे कानपुर समेत आसपास के इलाकों में भी घड़ी का वाशिंग पाउडर और केक पॉपुलर होने लगा। कानपुर में मिली सफलता के बाद इसके फाउंडर्स ने सोचा कि क्यों ना इसे पूरे यूपी में डिस्ट्रीब्यूट किया जाए, क्योंकि ओबवियसली यह इंडिया का सबसे बड़ा स्टेट जो है। आपको बताते चलें की टोटल एफएमसीजी सेल्स का 70 परसेंट कंट्रीब्यूशन सिर्फ यूपी से ही होता था। ऐसे में एक्सपेरिमेंट करने के लिए इससे अच्छी मार्केट तो कोई हो ही नहीं सकती थी। लेकिन दोस्तों अच्छी होने के साथ साथ यह एक टफ मार्केट भी था क्योंकि यहां डिमांड हाई होने की वजह से कंपटीशन भी बहुत ज्यादा था। ऐसे में घड़ी ने इस प्रॉब्लम से निपटने के लिए एक बहुत बड़ा स्टेप लिया। क्योंकि जहां बाकी कंपनीज अपने डिस्ट्रीब्यूटर्स को सिर्फ छह परसेंट तक का कमीशन दे रही थी, घड़ी ने इसे बढ़ाकर नौ परसेंट देना शुरू कर दिया। अब ज्यादा कमीशन का असर यह हुआ की दूसरी कंपनियों के प्रोडक्ट्स के मुकाबले डिस्ट्रीब्यूटर्स घड़ी को ज्यादा प्रेफर करने लगे और यही वजह थी की घड़ी की अवेलेबिलिटी और विजिबिलिटी मार्केट में बहुत ज्यादा बढ़ गई और अब यह गली मोहल्ले की हर छोटी से छोटी दुकान पर ईजिली मिलने लगा था। जिससे कंपनी की सेल्स बहुत तेजी से बढ़ने लगी। लेकिन दोस्तों ज्यादा कमीशन देने का मतलब यह भी था की घड़ी को आप बहुत कम प्रॉफिट के साथ में अपना बिजनेस रन करना पड़ रहा था और इनके सामने लॉस में जाने का भी खतरा मंडराने लगा। और दोस्तों इस तरह के प्रॉब्लम से ही निपटने के लिए उन्होंने खर्च में कई तरह की कटौती करनी शुरू कर दी। जैसे की कंपनी ने ट्रांसपोर्टेशन कॉस्ट को कम करने के लिए हर 200 से 300 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटी यूनिट या फिर डिपो बनाना शुरू कर दिया। जिससे ना सिर्फ ट्रांसपोर्टेशन का खर्च कम हुआ बल्कि लोगों तक प्रोडक्ट्स पहले के मुकाबले और भी जल्दी पहुंचने लगा। इस तरह से कुछ ही सालों में यूपी के अंदर घड़ी डिटर्जेंट सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला ब्रांड बन गया और फिर इस कामयाबी ने कंपनी को आसपास के राज्यों में भी एंटर करने को मोटीवेट किया। जिसके बाद से बिहार, मध्य प्रदेश और ऐसे ही यूपी से सटे कई स्टेट में घड़ी को बेचना शुरू किया गया। अब दोस्तों यूपी की वजह से मार्केट का पूरा आइडिया तो घड़ी डिटर्जेंट को लग ही गया था। इसीलिए धीरे धीरे दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में भी इसने पैर पसारने शुरू कर दिए और फिर घड़ी ने दो हज़ार दो तक 500 करोड़ रुपए की सेल्स को अचीव कर लिया था, जो कि कंपनी के लिए बहुत बड़ी कामयाबी थी। इसके बाद से कंपनी ने और भी कई सारे प्रोडक्ट्स को बनाना शुरू कर दिया और यह एफएमसीजी मार्केट में अपनी प्रेजेंस को स्ट्रांग बनाने में लग गए। ज्ञानचंदानी ने अपनी सभी प्रोडक्ट्स को एक दूसरे के साथ इंटीग्रेट करने के लिए साल दो हज़ार 5 में श्री महादेव सोप इंडस्ट्री का नाम बदलकर रोहित सर्फेक्टेंट प्राइवेट लिमिटेड यानी कि आरपीएल कर दिया, ताकि इनके ऑपरेशंस को आसान बनाया जा सके। इसी दौरान कम इन्नोवेशन और बदलते मार्केट ट्रेंड की वजह से निरमा धीरे धीरे अपनी पोजीशन खोता जा रहा था। जिसका भरपूर फायदा घड़ी को मिलने लगा और फिर घड़ी निरमा के मार्केट शेयर को कैप्चर करता चला गया। साथ ही घड़ी ने कई सारे और सेक्टर्स में भी अपने प्रोडक्ट्स लॉन्च किए। जैसे कि साल दो हज़ार 10 में जेएसपीएल ने हरिद्वार में एक यूनिट की शुरुआत की, जहां से हेयर ऑयल, शैम्पू, टूथपेस्ट, मॉइस्चराइजर, शेविंग क्रीम और लिक्विड हैंड वॉश की तरह नए नए प्रोडक्ट्स को मार्केट में उतारा गया। इसके नेक्स्ट ईयर यानी दो हज़ार 11 में घड़ी, व्हील और निरमा जैसे कई सारे ब्रांड्स को पीछे करते हुए इंडियन डिटर्जेंट मार्केट का लार्जेस्ट प्लेयर बन गया। लेकिन ये सब हुआ कैसे? क्या सिर्फ डिस्ट्रीब्यूटर्स को ज्यादा कमीशन देकर और व्हाइट डिटर्जेंट बनाकर कोई कंपनी इतने कम समय में इतना ज्यादा सफल हो सकती है?

5) https://youtu.be/3AraDFn7XVA?si=3d_20BqtXMcGxzpu

6) https://youtu.be/jgOD-cinMOc?si=igkZP29a0u46b2EU

Horror

https://youtu.be/najzPfzxc7k?si=88iZFNzulwMVNNgW

रचित अपने पापा की पुरानी फाइलों में कुछ जरूरी कागजात ढूंढ रहा था। तभी उसके हाथ में कुछ पेपर्स आए जिन पर खून के छींटे थे। रचित ने हैरानी से उन कागजों को देखा और उन्हें पढ़ने की कोशिश करने लगा। उन पर लिखे हुए बहुत से अक्षर लगभग मिट चुके थे। फिर भी जब उसने किसी तरह उन्हें पढ़ा तो हैरान रह गया। ये कागज किसी बंगले के थे, जिसे उसके पापा ने वर्षों पहले खरीदा था। रचित उन कागजों को लेकर अपनी मां वीणा जी के पास गया और उसने कहा, मां, देखो मुझे पापा की फाइल में क्या मिला है। बंगले के कागज। यह सुनते ही वीणा जी ने घबरा कर उसके हाथ से उन कागजों को छीन लिया और बोली। तुझे किसने कहा था इन्हें हाथ लगाने के लिए? मैं आज इन्हें जला ही देती हूं। यह क्या बोल रही हो तुम मां? पहले तो मुझे यह समझ में नहीं आ रहा है की जब पापा के पास यह बंगला था तब आज तक हम सब इस सड़े हुए किराए के मकान में क्यों रह रहे हैं? पापा ने आज तक कभी इस बंगले का जिक्र तक नहीं किया और तुम भी कागज जलाने की बात कर रही हो? 

इन कागजों को देखते हुए वीणा जी की आंखों में आंसू आ गए थे। उन्हें पोछकर किसी तरह स्वयं को संभालते हुए उन्होंने कहा। अब तू बड़ा हो गया है। इसीलिए आज मैं तुझे सारी बातें बताती हूं। यह बात तब की है जब मेरी और तेरे पापा की नई नई शादी हुई थी। जहां पर यह बंगला है, हम उसी जंगल के पास वाले शहर में रहते थे। हमारा कारोबार भी काफी फैला हुआ था। एक दिन हम दोनों घूमते हुए जंगल की तरफ चल पड़े। वहां नदी के किनारे एक शानदार बंगला खड़ा था। यह बंगला इतना सुंदर था कि एक ही नजर में मुझे भा गया और मैंने इसे खरीदने की जिद ठान ली। तेरे पापा ने मेरी इस जिद को पूरा भी कर दिया और जल्दी ही यह बंगला हमारा हो गया। हम अक्सर सप्ताह के अंत में वहां रहने जाते थे। एक दिन बंगले को सजाते हुए मेरी नजर एक पेंटिंग पर पड़ी जो इसी बंगले की थी। पर वह बहुत ही पुरानी और डरावनी थी। मैंने उसे दीवार से उतारा और कूड़ेदान में फेंक दिया। ऐसा करते ही मानो बंगले में तूफान आ गया। उसकी दीवारों में दरारें पड़ गई और वहां से वहां से खून रिसने लगा। इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते, अलमारी से निकल कर बंगले के कागज हमारे सामने हवा में नाचने लगे और उन पर खून के छींटे पड़ने लगे। साथ ही वातावरण में एक भयानक आवाज गूंजी। अगर अपनी जान बचानी है तो अभी के अभी यहां से चले जाओ और वापस लौटकर कभी मत आना। हमने जैसे तैसे अपने आप को संभाला और वहां से बाहर निकल गए। लेकिन पता नहीं मुझे क्या सूझी कि मैं बंगले के कागजों को समेट कर अपने साथ ले आई। अब मुझे लगता है कि मैंने यह बहुत भारी भूल की थी। इस घटना का तुम्हारे पापा के दिमाग पर बहुत बुरा असर हुआ। धीरे धीरे हमारा व्यापार भी डूबता चला गया। हमारे अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया। तब हम सभी परिचितों और रिश्तेदारों से दूर इस शहर में रहने आ गए। तुम्हारे पापा नौकरी करने की हालत में नहीं रह गए थे, इसीलिए मैंने घर की जिम्मेदारी उठाई। बाकी तो तुम सब कुछ जानते ही हो कि तुम्हारी नौकरी लगने से पहले हमने किस तरह दिन गुजारे हैं। अपनी मां से सारा वृतांत सुनकर रजित भी दुखी हो गया। उसने वीणा जी के हाथ से बंगले के कागजों को लेकर उन्हें वापस फाइल के हवाले किया और खामोशी से दफ्तर जाने के लिए तैयार होने लगा। 

आज दफ्तर में भी रचित के दिमाग में उस बंगले की ही बातें घूम रही थी और काम में उसका बिलकुल भी मन नहीं लग पा रहा था क्योंकि थोडी ही देर में कंपनी के बॉस मिस्टर धर्मी के साथ उसकी मीटिंग थी। इसलिए ना चाहते हुए भी मन मार कर उसे कॉन्फ्रेंस हॉल की तरफ जाना ही पड़ा। मीटिंग के दौरान मिस्टर धर्मी ने नोटिस कर लिया की रचित कुछ परेशान सा है। रचित उनके प्रिय कर्मचारी में से एक था इसलिए उन्होंने उससे उसकी परेशानी की वजह पूछी। रचित को याद आया की मिस्टर धर्मी अक्सर काली शक्तियों के विषय में पढ़ते रहते हैं और उनके विषय में वो खोजबीन भी करते रहते हैं इसलिए उसने उन्हें सारी बात बता दी। रचित की बात खत्म होने के बाद मिस्टर धर्मी ने कहा। तुम्हारी बातें सुन कर ऐसा लग रहा है की इस बंगले का रहस्य उसी पेंटिंग में छुपा हुआ है जिसे तुम्हारी माँ ने कूड़ेदान में फेंक दिया था। आज शायद वह समय आ गया है की मैंने अपने गुरु जी से जो सीखा है मैं उसका उपयोग करूं। इसलिए हम कल ही उस बंगले में चलेंगे। रचित लेकिन अगर हम दोनों को कुछ हो गया तो। नहीं नहीं मुझे बहुत डर लग रहा है सर। रचित घबरा कर बोला। गुरमीत ने उसे समझाते हुए कहा, डरो मत, हमें कुछ नहीं होगा। मैं आज रात कुछ विशेष पूजा करके हमारी सुरक्षा का सारा इंतजाम कर लूंगा। अब तुम घर जाकर आराम करो। मैं भी आज छुट्टी लेकर अपने घर जा रहा हूं। घर आकर जब रचित ने वीना जी को मिस्टर गुरमीत के साथ बंगले में जाने की बात बताई तब उन्होंने उसे रोकने की बहुत कोशिश की। लेकिन रचित को मिस्टर गुरमीत पर पूरा भरोसा था। अगले दिन तय समय पर मिस्टर गुरमीत रचित के घर आए। वीना जी ने उन्हें भी समझाने की बहुत कोशिश की। लेकिन मिस्टर हरमीत ने कहा, आंटी, आप घबराइए मत। ईश्वर चाहेंगे तो आपका बंगला जल्द ही आपको वापस मिल जाएगा। बस आप बंगले के कागज मुझे दे दीजिए। अब वीना जी कोई प्रतिरोध नहीं कर पाए और उन्होंने कागज लाकर मिस्टर अमीर को सौंप दिया। मिस्टर अमित ने उन कागजों को संभाल कर अपने बैग में रखने के बाद रचित के गले में अभिमंत्रित किया हुआ एक लॉकेट पहना दिया। वैसा ही लॉकेट उनके गले में भी था। चाहे कुछ भी हो जाए रचित इस लॉकेट को तुम अपने गले से मत उतारना। यह अगले 48 घंटों तक हमें बुरी शक्तियों से बचाकर रखेगा और हमें नींद भी नहीं आने देगा। मिस्टर अमित के कहने पर रचित ने हामी भर दी। सात घंटे के लंबे सफर के बाद मिस्टर अमित और रचित की गाड़ी उस बंगले के बाहर खड़ी थी। यह बंगला अब पूरी तरह से उजाड़ हो चुका था। उन दोनों ने जैसे ही बंगले के अंदर जाने के लिए उसका दरवाजा खोला, वहां तेज आंधी शुरू हो गई। फिर भी वो दोनों डरे नहीं और मजबूती से एक दूसरे का हाथ थामकर बंगले में प्रवेश कर गए। बंगले के अंदर अंधेरा था, लेकिन मिस्टर धर्मेंद्र पूरी तैयारी के साथ वहां आए थे। उन्होंने तुरंत अपने बैग से बड़ी बड़ी मोमबत्तियां निकाल कर जला दी। इन मोमबत्तियों से एक खास किस्म की खुशबू आ रही थी। अभी वो दोनों आगे कुछ सोचते की तभी बंगले में से किसी के हंसने की आवाज आने लगी। इस हंसी के थमते ही वहां एक दूसरी आवाज गूंजी तुम दोनों को क्या लगता है इन मोमबत्तियों की मदद से तुम हमें यहां से निकाल दोगे? यह असंभव है। असंभव। इसलिए उन्हें बुझा दो और यहां से चले जाओ। यह सुन कर रचित और मिस्टर धर्मेश थोड़ा सा घबरा गए। रचित कुछ कहना चाहता था, लेकिन मिस्टर धर्मेंद्र ने उसे चुप रह कर पेंटिंग ढूंढने का इशारा किया। वो दोनों अपने हाथ में मोमबत्ती लेकर अपने काम में जुट गए। लॉकेट और मोमबत्तियों के कारण बंगले में मौजूद काली शक्तियां इनके पास नहीं आ पा रही थी, लेकिन वो उन्हें डराने की भरपूर कोशिश कर रही थी। अंदर अंदर थोड़ा डरने के बावजूद वो दोनों बिना रुके अपने काम में लगे हुए थे। समय बीतता जा रहा था लेकिन उनकी तलाश खत्म ही नहीं हो रही थी। 24 घंटे गुजर चुके थे। उनके लॉकेट की शक्ति खत्म होने में भी बस 24 घंटे ही शेष थे। ऐसा लगता है कि हम सफल नहीं होंगे। रजित ने धीरे से मिस्टर धर्मेद्र से कहा और गुस्से में उसने अपने पैरों को जोर से फर्श पर पटका। ऐसा करते ही उसका पैर फर्श को तोड़ता हुआ थोड़ा अंदर चला गया। यह देखकर मिस्टर धर्मेश फर्श के गड्ढे में रजित के फंसे हुए पैर को बाहर निकालने के लिए थोड़ा झुके तो उनकी नजर फर्श के अंदर दबी हुई पेंटिंग पर पड़ी। रचित और मिस्टर धर्मेश ने मिलकर किसी तरह वहां से वो पेंटिंग निकाल तो ली पर इसके बाद वो दोनों बहुत ज्यादा थक गए थे इसलिए वो थोड़ी देर वहीं पर बैठ गए। मिस्टर अमित ने अब ध्यान से इस पेंटिंग को देखना शुरू किया तो उन्होंने पाया की इस पेंटिंग में एक खास तांत्रिक कोड में इस बंगले का राज़ लिखा हुआ था। उन्होंने अपनी आँखें बंद कर के अपने गुरु को प्रणाम किया जिनसे उन्होंने तंत्र विद्या सीखी थी। इसके बाद उन्होंने इस कोर्ट को तोड़ना शुरू किया। धीरे धीरे बंगले के सारे राज उनके सामने स्पष्ट हो गए। किसी जमाने में इस बंगले की जगह कुछ तांत्रिकों का आश्रम था। वो अपनी काली सिद्धियों के जरिए सारे संसार को अपना गुलाम बनाकर उन पर अपनी हुकूमत चलाना चाहते थे। जब इस गांव के मुखिया को इस विषय में पता चला तब उसने अपने गुरु से सलाह मशवरा करके उन तांत्रिकों को उनके आश्रम के साथ ही जला दिया। इसके बाद उनके गुरु ने वहां मौजूद राख से ये तस्वीर बनाकर इसमें उनकी कहानी छुपा दी और उसके फ्रेम को।

2) https://youtu.be/FaMlR85yisQ?si=nWgYpmGK6-LJhT8i

5) https://youtu.be/AXpzibmOprg?si=ZYIS3SWP6s6Oc99g

इस कहानी की लेखिका है सोनिया सैनी। आधी रात का समय था। मैं अपने कमरे में सोया हुआ था। अचानक मुझे किसी के फोन पर जोर जोर से बातें करने की आवाज सुनाई देने लगी। मैं उठ कर ड्राइंग रूम में आया तो देखा मम्मी कान पर फोन लगा कर किसी से बातें कर रही थी। अरे शालू, मुझे तो बहुत चिंता होती है जिम्मी की। वो क्या करेगा? कॉलेज के बाद कैसे घर की जिम्मेदारी उठाएगा। घर में ऐसे ही पैसों को लेकर दिक्कत चल रही है। अगर ये कुछ कर नहीं पाया तो कैसे होगा? अरे सुमन तू कब से इस चीज के बारे में सोच सोच कर पागल हो रही है। तूने किसी से बात की। किसी अच्छे ज्योतिषी से बात कर कि तेरे घर की कंडीशन कैसे सुधर सकती है? जिम्मी का करियर का क्या भविष्य है? अब मैं ज्योतिषी ढूंढते फिरूं यही काम। बच गया ना मेरा। अरे पागल, तुझे कहीं नहीं जाना। घर पर ही बैठ और यह ऐप एस्ट्रोटॉक डाउनलोड कर। मुझे खुद यह ऐप इंस्टाग्राम पर ऐड देखकर मिली। एस्ट्रोटॉक यानी कि ज्योतिषी, वह भी फोन पर। हां जी, अब दिक्कत और सवाल सबकी जिंदगी में होते हैं। किसी को शादी से रिलेटेड, किसी को रिलेशनशिप में, किसी के घर में पैसों की दिक्कत, किसी का कुछ काम नहीं हो रहा। किसी भी दिक्कत के लिए इधर काफी सारे ज्योतिषी हैं। बात कर लो और वह तुरंत तुम्हारे सवाल का जवाब देंगे या तुम्हें सॉल्यूशन बता देंगे। यार यह सही है। सबसे बढ़िया बात, मैं जब खुद अपना घर बनवा रही थी तो बहुत दिक्कत आई थी। तब मैंने यहां एक ज्योतिषी जी से बात की थी। उनसे मैं कुछ पूछती उससे पहले उन्होंने सिर्फ डेट ऑफ बर्थ और टाइम मांगा और वो देते ही तुरंत पूछ लिया। घर से रिलेटेड कुछ प्रॉब्लम्स चल रही हैं। है सिर्फ डेट ऑफ बर्थ और टाइम से मैं इसमें के बारे में पूछ सकती हूं और घर के पैसों की दिक्कत से रिलेटेड और अरे कुछ भी। अब देखो हम सब की लाइफ में डाउट्स और इश्यूज तो आते हैं ना। कोई रिलेशनशिप में तो उसे ये समझना होता है की लॉन्ग टर्म है या नहीं। कोई सिंगल है तो ये समझना होता है की कब आएंगे रिलेशनशिप में, किसके साथ आएंगे जॉब कब लगेगी सेटल कब होंगे। अच्छा मैं एक काम कर देती हूँ। अपने एस्ट्रोटॉक एप का डाउनलोड लिंक डिस्क्रिप्शन में डाल देती हूँ। वहां से डाउनलोड कर लो और सबसे बेस्ट बात पहली चैट फ्री मिल जाएगी मेरे लिंक से। शालू देख ऐसा वैसा कोई कदम मत उठाना। मैं आ रही हूँ। सुन सुन रही है ना तू? मैं आ रही हूँ मम्मी। किससे बातें कर रही हो इतनी रात को? शालू आंटी का फोन आया है। वो बहुत रो रही है। कहीं कुछ कर ना ले। मुझे जाना होगा बेटा। मम्मी शालू आंटी मर चुकी है। वो आपको फोन कैसे कर सकती है? होश में आई है। मैं सच कह रही हूँ बेटा। सच में उनका फोन आया था। मैंने गुस्से में फोन उनके हाथ से लेकर रिसीवर नीचे रख दिया। तभी एक बार फिर फोन की घंटी घनघना उठी। यूं आधी रात को अचानक फोन की घंटी की आवाज सुनकर मैं कांप उठा था। कांपते हाथों से मैंने फोन उठाकर हैलो बोला तो दूसरी तरफ से किसी औरत के सिसकने की आवाज सुनाई देने लगी। फोन मेरे हाथ से छूट गया और मैं पसीने पसीने होकर जमीन पर थप से बैठ गया। फोन का रिसीवर हवा में लटका हुआ था। फिर भी लगातार फोन के बजने की आवाज मुझे सुनाई दे रही थी। उस रात पहली बार मुझे समझ में आया कि रो रो में डर महसूस होना क्या होता है। शालू आई थी। थोड़ी देर पहले कह रही थी तू भी मेरे साथ चल। देख, तू उस दिन मुझे लेने नहीं आई। अकेला छोड़ दिया मुझे। लेकिन मैं तुझे अकेला नहीं छोडूंगी। अपने साथ ले जाऊंगी। मम्मी की बातें सुनकर मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था। साल 1898 की बात है। हम अपने बंगले नुमा घर में ठाठ बाट से रह रहे थे। पापा का बिजनेस खूब फैल रहा था। हमारे घर में किसी भी चीज की कोई कमी नहीं थी। मम्मी की एक सहेली थी शालू आंटी, जो हमारे सामने वाले घर में रहती थी। शालू आंटी अक्सर दोपहर के समय हमारे घर आती और मम्मी के साथ बैठकर घंटों बातें करती। मैं उस समय 12वीं में पढ़ता था। उनकी बातें समझने की ना मेरे पास समझ थी ना ही समय। लेकिन इतना जरूर समझ में आता था की आंटी अक्सर मम्मी से बातें करते हुए रोने लग जाती थी। रात के समय उनके घर से अक्सर झगड़ा की आवाज भी सुनाई देती थी। जब उनके घर से रोने पीटने और झगड़ने की आवाज आती तो मम्मी दौड़कर उनके घर पहुंच जाती और फिर कुछ देर बाद सब कुछ शांत होने के बाद ही लौट कर आती। धीरे धीरे समय बीत रहा था। एक रोज की बात है। दिसंबर की ठंडी रात थी। मेरी छोटी बहन गुड्डी को तेज बुखार था। बाहर हर तरफ कोहरा छाया हुआ था। अचानक रात के 11:00 बजे शालू आंटी के यहां से रोने पीटने की आवाजें सुनाई देने लगी। कुछ देर के शोरगुल के बाद हमारे घर के लैंडलाइन पर घंटी बजी तो मैंने फोन उठा लिया। बेटा मम्मी से बात करा। मम्मी तो गुड्डी के पास है आंटी। उसे तेज बुखार है। फोन पर भी नहीं आ सकती। आंटी के इतना कहने पर मैंने इशारे से मम्मी को फोन पर आने के लिए कहा तो मम्मी ने मुझे इशारे से फोन रखने के लिए कह दिया। मम्मी के कहे अनुसार मैंने फोन काट दिया। मियां बीबी का रोज का हो गया है। कोई कितने दिन तक बीच बचाव करेगा। अब मैं अपनी बेटी की तबीयत देखूं या इनकी राम कहानी सुनूं? सुबह सुन लूंगी। कौन सा वो कहीं भागी जा रही है। मम्मी को कोई अंदाजा नहीं था की आज शालू आंटी ने उन्हें आखिरी बार फोन किया है। कुछ देर बाद उनके घर से जोर जोर से चीखने चिल्लाने की आवाज सुनाई देने लगी और फिर सब शांत हो गया। उस रात मां उनके घर नहीं गई। सुबह पांच बजे तक पूरे मोहल्ले में कोहराम मच गया था। यह खबर सुनकर मम्मी को गहरा आघात लगा था। वह अक्सर रातों को उठ कर बैठ जाती और दरवाजा खोल कर बाहर की तरफ भागने लगती। जब पापा पूछते कि कहां जा रही हो तो कहती शालू मुझे बुला रही है। उसके यहां झगड़ा हो गया है। उसे कुछ हो जाएगा। मुझे जाने दो। पापा को यही लगता था की मम्मी को शालू। आंटी को उस रात ना बचा पाने का पछतावा है इसीलिए वह ऐसे रिएक्ट कर रही है। धीरे धीरे हमारे घर का माहौल बदलने लगा। पापा का चलता हुआ बिजनेस ठप्प पड़ने लगा। अपने बिजनेस को बचाने के लिए पापा ने जो भी कर्ज लिया था, वह भी डूब गया। अब पापा के पास कोई और चारा नहीं बचा था। अंत में उन्होंने अपना मकान बेचने का डिसीजन ले लिया। एक तरफ हमारा मकान जा रहा था, दूसरी तरफ कुछ ऐसा घट रहा था, जिस पर यकीन करना मुश्किल था। मम्मी को डिप्रेशन नहीं था। उन्हें वाकई शालू आंटी दिखाई दे रही थी और इस बात का एहसास मैं खुद कर चुका था। मैं पापा को मम्मी के बारे में बता कर टेंशन नहीं देना चाहता था, लेकिन अब चीजें नियंत्रण से बाहर हो रही थी। उस रोज मैंने पापा को सब कुछ सच बताने का निर्णय लिया। उसी शाम पापा घर आए तो उनके चेहरे पर खुशी झलक रही थी। क्या बात है पापा, आज आप खुश लग रहे हैं? बेटा धर्मेश अपना बंगला मुझे आधे दाम में देने के लिए तैयार हो गया है। कहता है शालू चली गई। अब वो इस घर में नहीं रहना चाहता। बस जल्द से जल्द यहां से दूर जाना चाहता है। बेटा, हमारे लिए इससे खुशी की बात क्या होगी। हमें इसी मोहल्ले में सामने वाला घर मिल गया। वो भी आधे दाम में। हम उस घर में नहीं रहने वाले। पापा मम्मी को शालू आंटी दिखाई देती हैं। मम्मी की हालत बिगड़ रही है और आप कह रहे हैं हम उसी घर में रहने जाएंगे जहां उनकी मौत हुई है। ऐसा कोई घर नहीं जहां कोई मरा ना हो। वहम की बात है ये सब। बेटा और तेरी मां को डिप्रेशन हुआ है। उसे इलाज की जरूरत है बस। और सबसे बड़ी बात मैं पैसा दे चुका हूं। हम कल ही वहां शिफ्ट हो जाएंगे। पापा कुछ सुनना नहीं चाहते थे, इसलिए दो दिन बाद हम शालू आंटी के बंगले में शिफ्ट हो गए थे। उस बंगले में बिताए हुए दिन मेरे जीवन के सबसे मनहूस दिनों में से एक है। मम्मी की हालत पहले से काफी खराब थी। पापा अपने कमरे में सोए हुए थे। मैं और छोटी मम्मी के साथ कमरे में सोए थे। अचानक आधी रात गए। हमें किसी के जोर जोर से चीखने और रोने की आवाज सुनाई देने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई किसी को बुरी तरह से मार पीट रहा हो। घबरा कर मेरी नींद टूट गई। जब मैं अपने बिस्तर से उठा तो पाया की बिस्तर पर छोटी बहन और मम्मी दोनों ही नहीं है और पूरे बंगले में अंधेरा पसरा हुआ है। मैंने टॉर्च उठाया और मम्मी और गुड्डी को आवाज लगाते हुए कमरे से बाहर की और जाने लगा। बेडरूम से बाहर निकल कर मैं जैसे ही हॉल में आया वो नजारा देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ गया। गुड्डी के बाल बिखरे हुए थे और वो अजीब से डरावने भाव चेहरे पर लेकर। घूर घूर कर मम्मी को देख रही थी। मम्मी कमरे के कोने में खड़ी हुई सिसक रही थी। अचानक गुड्डी अजीब ढंग से दीवार पर चलने लगी। मम्मा! यह क्या हो गया गुड्डी को? मम्मा, होश में आओ। गुडी गुडी नहीं है वो। वो चालू है। यह क्या कह रही हो? मेरे इतना कहते ही गुड्डी ने अजीब सी नजरों से मेरी तरफ देखा और जोर जोर से हंसने लगी। फिर वो भयानक तरीके से उलटी होकर हाथ और पैरों पर चलते हुए मम्मी के पास आई और उनके कान में आकर फुसफुसाते हुए कहने लगी। तू चल मेरे साथ। नहीं तो मैं गुड्डी को ले जाऊंगी।

Akbar and birble

1) 

https://www.youtube.com/watch?v=wJyJzNRcr9I

चाँद का टुकड़ा। एक दिन दरबार में बादशाह का गुस्सा पूरे उफान पर था। बीरबल दफा हो जाओ हमारी नजरों के सामने से। दोस्तों आप सोच रहे होंगे कि इस बार बीरबल को किस गलती की सजा मिल रही है। अब मैं निर्दोष हूं या गुनहगार यह जानने के लिए हम इस कहानी को शुरुआत से देखते हैं। कुछ दिन पहले ईरान से एक शख्स दरबार आया बच्चा सलामत रहे। मैं हूं आपके प्यारे दोस्त और ईरान के सिरताज सुल्तान अनछुई रानी का खास मंत्री। अब्बू अब भी हो। बताओ अब्बू अब यहां कैसे आना हुआ? दरअसल हुआ यूं कि हमारी सल्तनत में कोई ऐसा शख्स नहीं जो इन मसलों का हल ढूंढ सके। मेरी सल्तनत में तो नहीं पर आपके दोस्त बादशाह अकबर के यहां बीरबल नाम का एक होशियार सलाहकार है जो किसी भी मसले को चुटकियों में सुलझा सकता है। बीरबल के किस्से तो हमने भी सुने हैं। तो जाओ और उन्हें यह दावत पर बुलाओ। तो बस बादशाह अकबर अब कुछ दिनों के लिए बीरबल को ईरान भेज दीजिए। यह सुन तो बीरबल ने विनम्रता से अपने हाथ जोड़े और बादशाह को बड़ा गर्व हुआ कि उनके सलाहकार के किस्से पूरी दुनिया में मशहूर है। क्यों नहीं इसी बहाने बीरबल कुछ दिनों की छुट्टी मना लेगा। छुट्टी का नाम सुन तो शातिर के तो जैसे कान खड़े हो गए। बादशाह महान, बादशाह महान। अगर आपकी इजाजत हो तो क्यों न मैं भी बीरबल के साथ ईरान चले जाऊं। इसी बहाने वहां के खजूरों का सौदा कराऊंगा। खजूर तो बस एक बहाना है। क्यों है न? शातिर उद्दीन नहीं बादशाह महान। पिछले बार के खजूर खराब निकले तो इस बार मैं खुद उन्हें किसी हीरो की तरह तराश लूंगा ताकि मेरे महान बादशाह को सबसे बढ़िया खजूर मिले। ठीक है खजूर। यह सुन सभी हंस पड़े और बादशाह ने दोनों को जाने की इजाजत दे दी। फिर क्या? ईरान में बीरबल का ऐसा स्वागत हुआ जैसे मानो बीरबल उनका कोई नायक हो। राजा बीरबल। जिंदाबाद जिंदाबाद। राजा बीरबल जिंदाबाद जिंदाबाद। यह देख शातिर मंत्री को काफी जलन हुई और वह मन ही मन बोले।अब भले ही बीरबल को इज्ज़त मिले पर मौका मिलते ही मैं इसकी ऐसी बेइज्जती करूंगा कि इसे ईरान तो क्या हिंदुस्तान से भी बेदखल कर दिया जाएगा। जैसे ही ईरान के राजा ने बीरबल को अपने दरबार में देखा तो वो बोले बीरबल! स्वागत है आपका हमारी सल्तनत में। शुक्रिया महाराज। बताइए क्या समस्या है आपके राज्य में? वो जो अब तुम आ गए हो। तो मसले तो हल हो जाएंगे। पर पहले हमें मेहमान नवाजी का मौका दीजिए। सेवक को, बीरबल को शाही मेहमानों के कमरे में रखा जाए और और मैं इन्हें शाही तबेले में रख दो। क्या? उस रात बीरबल पूरे शानो शौकत के साथ मखमली बिस्तर पर सो गए। पर शातिर मंत्री तबेले में गोबर और मच्छरों के बीच तड़पते रहे। इस बेइज्जती का बदला तो मैं लेकर रहूंगा बीरबल। आओ मच्छर भी ना। फिर क्या? अगले कुछ दिन बीरबल सुल्तान ईरानी के साथ राज्यों की समस्या सुलझाने में जुट गए। ऐसे करते करते पूरा एक हफ्ता बीत गया और सुल्तान ईरानी के सभी समस्याओं का निवारण उन्हें मिल गया। उस शाम जब वे तीनों शाही बगीचे में सैर कर रहे थे, तब ईरानी ने अचानक पूछा। वाह बीरबल! हमने जितना सोचा था, तुम तो उससे कई गुना होशियार निकले। शुक्रिया महाराज। इस तारीफ और मेहमाननवाजी दोनों के लिए। चापलूस कहीं का। उल्लू बीबी तो क्या हमारी मेहमान नवाजी बादशाह अकबर से भी अच्छी है? ये सुन तो बीरबल उलझन में पड़ गए। वे जानते थे दोनों में से किसी को भी कम बताना उचित नहीं होगा। बीरबल तो गए। वो दरअसल वो आप अपनी जगह अच्छे हैं और बादशाह अपनी जगह। आप दोनों की तुलना मानो जैसे पानी और हवा हो। तुम्हारी यही बात हमें पसंद है बीरबल, तुम सुर ताल के हिसाब से अपना जवाब देते हो, पर जाने से पहले तुम्हें एक सवाल का जवाब तो जरूर देना होगा। हुकुम कीजिए महाराज! बीवी वैसे तो तुम कई सारे राज्यों में गए होंगे और उनके इंसाफ देने के तौर तरीके देखे होंगे, लेकिन क्या तुमने कोई ऐसा राजा देखा है जो इंसाफ देने में और जनता की तरक्की करने में हमसे बेहतर हो? यह सुन तो बीरबल बेहद चिंतित हो गए। वह जानते थे कि एक भी शब्द अगर इधर से उधर हुआ तो वो न यहां के रहेंगे न वहां के। और तो और शातिर मंत्री भी वही है जो अकबर को चुगली करने में जरा भी नहीं सोचेंगे। अब होगी बीरबल की छुट्टी। अब मुझे कुछ ऐसा जवाब देना होगा जिससे कोई नाराज न हो। पर क्या उत्तर दूं? और उसी वक्त बीरबल की नजर आसमान में निकले पूरे चांद पर पड़ी, जिसे देख उन्हें एक सुझाव आया। महाराज, आप और आपका इंसाफ पूर्णिमा के चंद्रमा जैसा है, जो अपनी रोशनी से अंधेरे में भटकते हुए लोगों को राह दिखाता है। यह सुन तो सुल्तान आठों ईरानी मानो खुशी से फूले न समाए। मगर फिर वह बोले। लेकिन बीरबल, अगर मैं पूर्णिमा के चांद की तरह हूं तो बादशाह अकबर क्यों है? यह सुन तो बीरबल के पसीने छूटने लगे और शातिर मंत्री तो मजे लेने लगे। यहां बीरबल कुछ गलत बोला तो वहां उसकी छुट्टी। है। वो दरअसल आपकी तुलना में हमारे महाराज तो महज आधे चांद की तरह है। ये सुन सुल्तान ईरानी तो बहुत खुश हुए लेकिन पास ही जासूस की तरह दूर खड़े शातिर मंत्री मन ही मन बोले अच्छा। ईरान के सुल्तान। पूर्णिमा का खूबसूरत चांद और हमारे बादशाह महान। सिर्फ आधा चांद। अब देखना बीरबल, मैं तुम्हें कैसे सबक सिखाता हूं। फिर क्या? कुछ दिनों बाद आगरा पहुंचते ही शातिर मंत्री ने सारी बात बादशाह को बता दी। मैं तो शर्म से पानी पानी हो गया था। हमारे महान बादशाह की इतनी बेइज्जती इतनी तो आज तक किसी ने नहीं की। आप और आधा चांद। छी छी छी छी छी छी। ये सुन तो बीरबल के पसीने छूट गए और बादशाह अकबर का पारा उफान पर चढ़ गया। बीरबल। दफा हो जाओ। हमारी नजरों के सामने से। यह सुन शातिर मंत्री को अपनी जीत का एहसास हो गया। इस बार तो बीरबल ने अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। अब इससे बचने का कोई रास्ता नहीं। पर वो जानते नहीं थे कि बीरबल कोई भी बात बिना सोचे समझे नहीं कहते। इसलिए बीरबल ने शांति से बादशाह को बताया महाराज! जिसे आप बेइज्जती समझ रहे हो दरअसल वो आपकी तारीफ है। वो कैसे आधे चांद की चमक पूर्णिमा के चांद के सामने कैसे टिक पाएगी भला? महाराज! बात चमक की नहीं। वो तो कभी भी फीकी पड़ सकती है। बात है आपके अस्तित्व की और भविष्य की। बातें मत घुमाओ बीरबल। मुद्दे पर आओ। तुमने बादशाह को आधा चांद क्यों कहा, वो बताओ। बस देखिए, मैंने भले ही सुल्तान को पूर्णिमा का चांद कहा। परंतु पूर्णिमा का चांद धीरे धीरे ढल जाता है और आती है अमावस्या, जहां चांद का कोई अता पता नहीं होता। परंतु उसके विपरीत वक्त के साथ आधे चांद का आकार और चमक बढ़ती ही जाती है। तो कहने का तात्पर्य यह है सुल्तान ईरानी का राज तो एक दिन खत्म हो जाएगा परंतु आपका प्रभाव बढ़ते ही जाएगा और एक दिन पूरी दुनिया को अपनी रोशनी से जगमगा देगा। यह सुन तो बादशाह बेहद खुश हो गए। वाह बीरबल! इसी वजह से तुम्हारा नाम पूरी दुनिया में मशहूर है। पर। यह देख बादशाह और सारे दरबारी हँस पड़े और हमने यह सीखा कि किसी भी अधूरी बात को सुनकर हमें निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहिए।

2) https://www.youtube.com/watch?v=uUl-usSrsYI

दादी की आखिरी इच्छा। एक दिन दरबार में उदासी छाई हुई थी। कारण था बादशाह की पर पर दादी का अंतिम समय निकट आ जाना। बेटा की डरने की कोई बात नहीं है। मैंने अपनी जिंदगी मस्त मजे में काटी है। अरे वाह! अरे वाह! अरे वाह! यह। बस एक बात न करने का अफ़सोस है और वो ही मेरी आखिरी इच्छा है। आप बस हुकुम कीजिये। दादी अम्मी आपकी आखिरी इच्छा के लिए दुनिया हिला दूंगा मैं। दरअसल, मैंने जिंदगी में कभी तोतापुरी आम नहीं खाया। जब जब मैं आम खाने गई, तब तब। तो बस एक बार तोतापुरी आम खाकर। मैं नरक। अरे, मेरा मतलब स्वर्ग पधार कर सकती हूँ। यह सुन बीरबल समेत वहां खड़े सभी लोग चौंक गए और शातिर मंत्री बोले। पर यह तो नामुमकिन है। अभी तो आम का नहीं, चीकू का मौसम चल रहा है। तो चीकू चलेगा। हम कुछ नहीं जानते। किसी भी तरह आम का इंतजाम किया जाए वरना तुम सब की छुट्टी। यह सुन सारे मंत्रिमंडल तुरंत दौड़ पड़े और बाजार पहुँच कर सभी फल वालों से आम के बारे में पूछने लगे। परन्तु निराशा के अलावा कुछ हाथ न लगा। अरे दादी को भी अभी आम खाना था। कुछ महीने और रुक जाते पर। बीरबल ने इसका उपाय सोच लिया था और वो दौड़ते हुए बोले। उम्मीद करता हूं कि आचार वाले के पास आम मिल जाएगा। वहां महल में दादी की हालत और गंभीर होती जा रही थी। आम। आम। हौसला रखिए दादी अम्मी। बाकियों का तो पता नहीं, पर मुझे भरोसा है कि बीरबल आम लेकर जरूर आएगा। परंतु जैसे ही बीरबल आम लेकर पहुंचे वैसे ही दादी ने अपनी आंखें हमेशा हमेशा के लिए बंद कर ली। उस दुखद घटना को देख अकबर मानो सदमे में चले गए और बीरबल भी सर झुकाए वहां खड़े रहे। यह सबके लिए बेहद कठिन समय था। और क्यों न हो, बादशाह अकबर जिनके पास सब कुछ है, उनकी प्यारी दादी को एक आम भी न दे सके। उस घटना को कुछ हफ्ते बीत गए पर बादशाह का मानो राजकीय कर्तव्यों से ध्यान ही भटक चुका था। वह बस अपने कमरे की खिड़की के बाहर। बहती नदी के पानी को टक लगाए देखते रहते। यह देख सारे मंत्री चिंतित हो गए कि अब उनके राज्य का क्या होगा और तभी अचानक शातिर मंत्री खुशी से चिल्ला उठे, मिल गया। मिल गया। बादशाह को उदासी से बाहर लाने का उपाय। क्या बाबा आत्मशांति वाले? अब आपकी दादी की आत्मा को शांति दिलाने का केवल एक ही मार्ग है। जल्दी बताइए, क्योंकि आपकी दादी बिना आम खाए चली गई तो आपको सोने से बने आमों को राज्य के सारे विद्वान और बाबाओं को बांटने होंगे। क्यों सोने के आम बांटने से हमारी दादी की आखिरी इच्छा पूरी हो जाएगी? शत प्रतिशत यह है बाबा की गारंटी।फिर क्या? बादशाह के आदेश अनुसार महल के तहखाने से सोना ले उसे पिघलाकर उससे आम बनाए जा रहे थे। जैसे ही यह खबर राज्य में फैली, सोना आम लेने के लिए विद्वानों और बाबाओं की लंबी कतार लगने लगी। और तो और राज्य के बाहर से भी लोग आकर इस परिस्थिति का फायदा उठाने लगे। परंतु बादशाह भावनाओं में इतना बह गए थे कि उन्होंने इस बात का भी गौर न किया कि इसके कारण महल का खजाना कम होते जा रहा था। यह देख सारे मंत्रिमंडल चिंतित हो गए। इस तरह राज्य कंगाल हो जाएगा। हमें जल्द ही कुछ करना होगा। पर क्या करें, बादशाह का पश्चाताप तो खत्म ही नहीं हो रहा। बीरबल ने इस पर खूब विचार किया, परंतु उन्हें भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि समस्या को कैसे सुलझाएं। और तभी उनकी नजर महल के भीतर आते शातिर मंत्री पर पड़ी जो पांव फिसल कर गिर पड़े। अरे रे रे रे। रे मेरा सिर। ये देख बीरबल के दिमाग की बत्ती जली और वो बोले। मिल गया उपाय। बस मुझे एक डंडा लाकर दो। फिर क्या? डंडा ले बीरबल। सोने की आम लेने आई भीड़ के पास गए और बोले सुनो। अब जो जो इनाम लेने आगे आएगा, उसे सिर पर एक जोर का डंडा भी पड़ेगा। जो इस बात से मंजूर है, वही आगे आए। यह सुन वहां खड़े सभी लोग चौंक गए और शातिर मंत्री ने तुरंत यह बात जाकर बादशाह को बताई। बादशाह महान। जल्दी चलिए। लगता है बीरबल अपना मानसिक संतुलन खो चुका है। जैसे ही बादशाह वहां पहुंचे, उन्होंने देखा कि बीरबल डंडा लिए लोगों के पीछे भाग रहे थे। बीरबल यह क्या कर रहे हो? तुम्हारा दिमाग तो ठिकाने पर है। जी महाराज! मेरा तो है पर मेरी दादी का नहीं। क्या मतलब? वो दरअसल गांव में मेरी प्यारी दादी की याददाश्त। सिर में चोट लगने के कारण खो गई है। यह तो बड़े दुख की बात है। पर इसका बाबाओं को डंडा मारने से क्या लेना देना? वो दरअसल वैद जी ने कहा है दादी के सिर के जिस हिस्से में चोट लगी है, अगर ठीक उसी हिस्से में दोबारा मार पड़े तो शायद उनकी याददाश्त वापस आ सकती है। यह सुन तो बादशाह चौंक गए। पर याददाश्त तो तुम्हारी दादी की गई है। फिर इन बाबाओं के टकले पर डंडा मारने से उन्हें कैसे फायदा होगा? कोई तर्क है इस बात का? ओह! ऐसा है क्या? मुझे लगा जिस प्रकार इन्हें सोने के आम देने से आपकी दादी की तोतापुरी आम खाने की इच्छा पूरी हो सकती है, उसी प्रकार शायद मेरी दादी का भी इलाज मुमकिन हो। यह सुन बादशाह तुरंत समझ गए कि बीरबल का इशारा किस तरफ है और उन्हें अपनी गलती का एहसास होने लगा। तुम सही कह रहे हो बीरबल। जिस तरह हम किसी और की बीमारी अपने शरीर द्वारा ठीक नहीं कर सकते। उसी तरह किसी और की इच्छा भी पूरी करना नामुमकिन है। हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई। कोई बात नहीं महाराज, कभी कभी भावनाएं हमारी सोच पर हावी हो जाती है। तो ऐसे ही भूल किसी से भी हो सकती है। बस कुछ व्यक्ति उसे सुधार पाते हैं और कुछ नहीं। पर अब हम इस गलती को कैसे सुधारें? सबसे पहले तो सभी बाबाओं को यह आदेश दीजिए कि सोने के आम लौटा दे, जिससे हमारे राज्य का खजाना फिर से भरा जा सके। एक राजा का कर्तव्य राज्य के प्रति सबसे पहले होता है, पर हमारी दादी की आखिरी इच्छा। कहा जाता है हर किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। किसी को जमीन नहीं मिलती तो किसी को आसमान नहीं मिलता। बहुत खूब। इसका मतलब यही है कि हर इंसान को जिंदगी में सब कुछ नहीं मिलता और अगर मिल भी जाए तो उसकी जगह कोई और इच्छा आ जाती है। यह बात तो हम भी समझते हैं, लेकिन हमारी पर परदादी की तो बहुत मामूली इच्छा थी। जी बिल्कुल। उसके लिए एक बेहतरीन उपाय है। ऐसी मान्यता है कि पेड़ों में आत्माएं बसती है। तो क्यों ना हम आम के पेड़ लगाएं। उससे वातावरण भी ठीक होगा। अगर दादी की इच्छा हुई तो वह आम आकर खा भी लेगी। यह सुन तो बादशाह की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और उन्होंने बीरबल को तोहफे में तीन सोने की आम देने का आदेश दिया और हमने यह सीखा कि भावनाएं अपनी जगह ठीक है पर उसे अपनी सोच पर हावी नहीं होने देना चाहिए वरना भारी नुकसान हो सकता है।

3) https://www.youtube.com/watch?v=nYrg_gKTdBs

शातिर की चोरी। एक शाम शातिर मंत्री अपने घर में आराम फरमा रहे थे और तब अचानक उनकी बेगम नाजिया वहां आई और उनसे पूछा अजी सुनते हो? याद है हम पिछले हफ्ते शाही दरबार की दावत में गए थे और वहां हमने शाही भिंडी मुसल्लम खाया था। कैसे भूल सकता हूं तुमने भूलने का मौका ही कहां दिया? जी बिल्कुल। वो था ही इतना स्वादिष्ट। तो क्यों न तुम शाही रसोई से वो शाही भिंडी ले लो। मेरा वो खाने का बहुत मन हो रहा है। हां, बात तो सही है। महल में आने वाली भिंडी का स्वाद हमारे बाजार में मिलने वाली भिंडी से बहुत स्वादिष्ट था। मैं अभी जाकर ले कर आता हूं। फिर क्या? बिना वक्त गंवाए शातिर मंत्री तुरंत वहां से दौड़े और पहुंच गए शाही रसोई में जहां इत्तेफाक से मुख्य बावर्ची भिंडी ही बनाने की तैयारी कर रहा था। कैसे हो बाबा बावर्ची, खाना पीना हुआ या नहीं? अरे मियां काम क्या है? वो बताओ। खामखां वक्त जाया मत करो। आज बादशाह ने फिर से भिंडी मुसल्लम खाने की इच्छा जताई है। ओह हो हो हो हो तो मतलब रसोई में भिंडी बहुत सारी होगी आज। क्या तुम मुझे थोड़ी सी दे सकते हो? अरे हरगिज नहीं दे सकता। बादशाह की अनुमति के बिना इस रसोई घर से एक कढ़ी पत्ता तक नहीं हिलता। तो भिंडी क्या चीज है भाई? और बादशाह किसी जरूरी काम से बीरबल के साथ पड़ोसी राज्य गए हैं। सीधे रात के खाने के वक्त ही लौटेंगे। अरे मगर सिर्फ थोड़ी सी भिंडी की तो बात है। अरे अब तुम यहां से जाते हो या सिपाहियों को कहकर धक्के मार कर निकलवा लो। याद रहे तुम होगे मुख्यमंत्री। पर इस रसोई का मुख्य बावर्ची मैं हूं। हां हां, ठीक है। ठीक है, ज्यादा उछलो मत। इस बावर्ची की तो मैं चटनी बना कर ही रहूंगा। क्या तुम्हें भिंडी नहीं मिली? मैंने कोशिश तो की। पर मैं कुछ नहीं जानती। मुझे शाही भिंडी खानी है बस वरना आज रात भूखे सोने की तैयारी कर लो। अरे बाप रे! अब क्या करूं? शातिर मंत्री ने इस पर कुछ सोच विचार किया और तभी उनका बेटा वहां से गुजरते हुए बोला अब्बू मैं तट पर सोने जा रहा हूं। खाना बनते ही उठा देना। यह कहकर वह सीढ़ियां चढ़ वहां से निकल गया और शातिर मंत्री के शातिर दिमाग में आई एक शातिर योजना। वो कहते हैं ना सीधी उंगली से घी ना निकले तो उंगली टेढ़ी कर लेनी चाहिए। अब मैं भिंडी तो लाऊंगा ही पर साथ ही साथ उस बाबा बावर्ची की भी छुट्टी करवाऊंगा। फिर क्या शातिर मंत्री अपना भेस बदलकर दरबार पहुंचे और एक सिपाही से कहा। अरे सुनो। मैं पड़ोसी राज्य से आया हूं। आपके बादशाह वही हैं और उन्होंने एक संदेशा भेजा है कि वह आज भिंडी मुसल्लम नहीं खाना चाहते, बल्कि वड़ा पाव खाएंगे। तो यह बात मुख्य बावर्ची को बताना मत भूलना। उस सिपाही ने ठीक वही किया जिससे सुन बाबा बावर्ची तो हड़बड़ा गया। अरे ये क्या? रसोई में तो पाव बनाने का सामान खत्म हो गया है। हमें जल्दी बाजार से सब लाना होगा। चलो। जैसे ही वो दोनों वहां से निकले, खिडकी के रास्ते से शातिर मंत्री कूदे और तुरंत गए भिंडी के पास। शातिर उस दिन तुम्हारी अक्लमंदी का कोई जवाब नहीं। कुछ देर बाद शातिर मंत्री अपने घर पहुंचे। यह लो जितनी उम्मीद की थी उससे कहीं ज्यादा भिंडी है। तुम भी क्या याद रखोगे? हां हां ठीक। है। अब जाकर छोटू को जगाओ। उसके खाए बिना मेरे मुंह से एक निवाला नहीं जाएगा और तुम्हारे गले से तो मैं पानी की बूंद भी जाने नहीं दूंगी। वो तो मैं भी जानता हूं और यह भी जानता हूं कि अगर किसी ने उससे पूछा कि खाने में क्या खाया था तो वह सच उगल देगा। इसलिए अब एक ही रास्ता बचा है। और फिर शातिर मंत्री दबे पांव उनके बेटे के पास पहुंचे और उसके ऊपर एक बाल्टी पानी डाल दिया, जिससे वह बच्चा अचानक डरकर उठ गया। क्या हुआ? क्या हुआ? अरे जल्दी चलो बेटा, बारिश हो रही है। तेज बारिश। यह सुन बच्चा वहां से भीतर भागा और शातिर मंत्री ने अपने आप से कहा। अब बस यही उम्मीद है कि तीर निशाने पर लग जाए। कुछ देर बाद बाबा बावर्ची ने बादशाह के सामने खाने का ढक्कन हटाया तो बादशाह दंग रह गए। यह क्या वड़ापाव। हमने तो तुमसे भिंडी मुसल्लम बनाने को कहा था। यह क्या बवाल बना दिए हो? पर। पर आप ही ने तो संदेसा भेजा था। जिल्ले इलाही क्यों बकवास कर रहे हो? हमें और भूख बर्दाश्त नहीं हो रही। जल्द से जल्द भिंडी बना लाओ वरना तुम्हारी नौकरी गई। यह सुन तो बावर्ची वहां से दौड़ा। पर जैसे ही वह रसोई घर पहुंचा तो देखा कि भिंडी वहां से गायब थी। वह समझ गया कि इसके पीछे किसका हाथ होगा। तुम तो गए काम से। क्या? तुमने सोच भी कैसे लिया कि मैं चोरी जैसी घटिया हरकत कर सकता हूं। बादशाह महान। यह बाबा मुझसे जलता है और कुछ नहीं। झूठ मत बोलो। तुम ही मुझसे भिंडी मांगने आए थे ना और उसके बाद ही भिंडी गायब कैसे हो गई? तुम जरूर उसे घर ले गए होंगे। इतना ही है तो मेरे घर वालों को बुलाकर पूछ क्यों नहीं लेते कि उन्होंने आज खाने में क्या खाया था? तुम्हारी पत्नी को तो तुमने झूठ का पाठ पढ़ा दिया होगा, पर एक बच्चा हमेशा सच बोलता है। इसलिए तुम्हारे बेटे को यहां पेश किया जाए। तो बताओ बेटे। मेले बाबू ने थाने में क्या खाया था? भिंडी खाई थी। यह तो उनके। मेरा मतलब। यह सुन तो सब चौंक गए और बाबा बोले। देखा मैंने कहा था ना। अब सब साफ हो चुका है। कुछ साफ नहीं हुआ। हो सकता है इसने भिंडी सपने में खाई हो। बादशाह मेरी आपसे दरख्वास्त है कि आप मेरे बेटे से उसके दिनचर्या के बारे में पूछे जरूर। तो बेटे बताओ आज तुमने क्या किया? मैंने मैं तुम्हे पाठशाला ले आया। फिर बहार ठेला। फिर घर आते छत पर सो गया। फिर अचानक बारिश होने लगी। देखा बादशाह अकबर। हम सब जानते हैं कि आज बारिश हुई ही नहीं। क्यों है ना? बात तो सही है। ये सुन दरबार में चहल पहल होने लगी और बाबर जी को समझ नहीं आ रहा था कि अब वो क्या बोले। तो बस जैसे मेरे बेटे ने सपने में बारिश देखी ठीक उसी प्रकार वो सपने में भिंडी भी खा गया होगा। आप इस बावर्ची की बात पर यकीन मत कीजिए। इसे कड़ी से कड़ी सजा दीजिए। ठीक कह रहे हो मंत्री जी। शाही रसोई में किसी भी प्रकार की लापरवाही जानलेवा हो सकती है। इसलिए बाबा बावर्ची को इसी वक्त बर्खास्त किया जाता है। यह सुन तो बावर्ची जैसे ठंडा ही पड़ गया और उसकी आँखें अश्रु से भर आई। और शातिर के मन में तो लड्डू फूटने लगे। चलो सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। उनकी यह हरकत बीरबल ने भांप ली। वो समझ गए कि इसमें जरूर मंत्री जी की कोई साजिश है और वो किसी बेगुनाह के साथ नाइंसाफी होने नहीं दे सकते थे। वो तुरंत उठे और बोले ठहरिए महाराज। जिसे इंसाफ देना चाहिए उसे दंड कैसे दे सकते हैं आप? क्या मतलब? वो दरअसल मैंने ही बावर्ची को भिंडी बनाने से मना किया था। ऐसा क्यों? ये सुन तो बावर्ची ने पहले अपना सिर खुजाया फिर बीरबल ने उन्हें निश्चिंत रहने का इशारा किया। शाम को बीरबल का संदेशा भी आया था। पर तुमने ऐसे क्यों किया? बीरबल? वो दरअसल मैं आपको बताना ही भूल गया था कि इस बार सात समुंदर पार से जो भिंडी आई है उसमें जहरीली फफूंद लग गई है। क्या? क्या? क्या? हां वो। मैंने इनसे कहा था कि उसे फेंक देना। क्या पता उसे खाकर किसी की तबियत कब बिगड़ जाए। और तो और बच्चों के लिए वो भिंडी घातक साबित हो सकती है। अरे मैं अपने बच्चे को कुछ नहीं होने दूंगा। जल्दी से कोई वैद्य को बुलाइए। जल्दी से जल्दी से। इससे पहले वो भिंडी अपना असर कर जाए। जल्दी कोई जाओ। अरे नहीं। इसका मतलब तुमने वो भिंडी खाई। हां हां, मैंने ही वो रसोई घर से चुराई थी। अब मुंह क्या देख रहे हो? वेद जी को बुलाओ। जाओ चिंता मत करो। तुम सब ठीक हो। हां, पर आपकी नीयत ठीक नहीं मंत्री जी। क्या मतलब?

7) 

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अकबर का खौफ। एक दिन बादशाह अकबर महल में खुशी से झूम रहे थे। झूम बराबर झूम। यह अद्भुत नजारा देख बीरबल के मन में बड़ी जिज्ञासा हुई और उन्होंने इसकी वजह जाननी चाही। महाराज! क्या मैं आपकी खुशी की वजह जान सकता हूं? क्यों बताऊं बीरबल, आज तो ऐसा लग रहा है जैसे हमने दुनिया पर जीत हासिल कर ली हो। ओह, बहुत खूब। मगर हुआ क्या है महाराज? तो सुनो, आज जब हम दरबार से बाहर टहलने निकले तब। खुद बादशाह मेरी आंखों के सामने से तो भाग्य ही खुल गया। सी। संडे सगे नहीं तो आपसे बढ़िया। इंसान तो पूरी दुनिया में नहीं। ओह! ठोको ताली। ओह! शुक्रिया। ओह! ओह! ओह! ओह! ओह ओह! ओह ओह! सब्जी हम तुमको बहुत मानते है। तुम्हारे जैसा राजा पाकर हम तो बहुत खुश हो गए है। मुरब्बा तुम्हारा भी शुक्रिया। अकबर बादशाह की। जय। अकबर बादशाह की जय। देखो बीरबल, हमारी प्रजा हमें कितना चाहती है। वह हमारे गुणगान करते थकते नहीं। एक बादशाह को इससे ज्यादा और क्या चाहिए? उसी वक़्त वहां शातिर मंत्री भी आ गए और वो बोले जी। बिलकुल जिल्ले इलाही। मैं तो आपसे हमेशा कहता हूँ कि आप ज्ञानी है, अंतर्यामी है। बस यही बात अब हमारी जनता को भी समझ आ गई है। बादशाह महान। बीरबल ने इस पर विचार किया और उन्होंने मन ही मन सोचा। यह तो सही है कि बादशाह के कई लोग कायल है परन्तु यह बस आधी सच्चाई है। मुझे इन्हें सच्चाई से रूबरू करवाना ही होगा। वरना खुद के मोह में खोकर एक राजा अपनी जनता अनदेखा कर सकता है। क्या हुआ बीरबल? कहीं तुम भी हमारी महानता के विचार में तो नहीं खो गए? आपकी महानता पर तो किसी को कोई संदेह नहीं है। लेकिन किंतु परंतु क्यों? हमसे साफ साफ कहो। वो दरअसल यह बात तो सही है कि प्रजा आपसे प्रेम करती है, पर यह भी सच है कि वो प्रेम की भावना आपके डर के कारण उमड़ी है। यह सुन शातिर मंत्री तिलमिला उठे और बोले। देखा नहीं यह बीरबल को तो किसी की तारीफ हजम ही नहीं होती। बस लोग उसी के गुणगान गाते रहते हैं। जनता है यह आपसे। क्या मैं बादशाह अकबर से चलूं? हो ही नहीं सकता। मैं तो बस वो कह रहा हूं जो सच है। जनता को महाराज से प्रेम तो है पर उस प्रेम का अधिक हिस्सा डर से उत्पन्न होता है। बस बहुत हुआ। अब इससे ज्यादा तुमने अकबर महान की तौहीन की तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। बादशाह, आप बस हमें हुकुम कीजिए। मैं इसी वक्त बीरबल को यहां से धक्के मारकर निकाल देता हूं। इसकी कोई जरूरत नहीं। हम जानते हैं कि बीरबल कोई भी बात बिना जाने समझे नहीं कहता तो इसके पीछे भी कोई वजह होगी। तो ठीक है बीरबल, हम तुम्हें दो दिन का वक्त देते हैं। अगर तुम यह साबित कर पाए कि हमारी जनता हमसे डरती है तो ठीक वरना सजा के लिए तैयार हो जाओ। सिर्फ सजा नहीं, इसे तो कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। यह सुन तो बीरबल चिंता में आ गए और उन्होंने खुद से कहा। मुझे भी उड़ता तीर लेने की आदत हो गई है। बीरबल अब चुप क्यों हो गए तुम? अच्छा होगा तुम अभी हार मान लो और बादशाह महान से दया की भीख मांग लो। बीरबल को तो समझ नहीं आ रहा था कि अब ये बात वो कैसे साबित करे। अब भला कोई बादशाह के सामने तो उसकी बुराई नहीं करेगा तो वो ऐसा क्या करे कि जिससे बादशाह के प्रति जनता का डर साबित हो जाए। और तभी शहजादे वहां से दौड़ते हुए गए और उनके पीछे पीछे दौड़ी। महारानी हाथ में दूध से भरा गिलास लिए अरे अरे रुक जाओ बेटा, जब देखो दूध से दूर भागते हो। यह नजारा देख बीरबल को एक विचार आया और वो बोले। ठीक है महाराज! कल तक दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। फिर क्या? अगले दिन बीरबल ने शाही दूध को जनता के बीच एक संदेश लेकर भेजा। सुनो, सुनो, सुनो। बादशाह अकबर आज किसी महत्वपूर्ण काम से राज्य से बाहर जा रहे हैं और उन्होंने यह कहा है कि उनकी गैर मौजूदगी में सारे रहिवासियों को महल के आंगन में बने बड़े से गड्ढे में एक बाल्टी दूध डालना होगा, जिसे बाद में नदी में बहा दिया जाएगा। यह सुन वहां खड़े लोग अपना सिर खुजाने लगे। भला बादशाह ने यह फरमाइश रखी क्यों? अरे, यह क्या मजाक है? पहले ही दूध इतना महंगा हो गया है। पर बादशाह के आदेश को नकारा भी तो नहीं जा सकता। हां, पर उस आदेश का कोई तर्क भी तो होना चाहिए। अगर उसे भूखे लोगों और पशुओं को देना होता तो भी समझ आता। पर यह तो उसे नदी में बहाना चाहते हैं। बात तो सही है। चलो इसका कोई उपाय ढूंढते हैं। कुछ देर बाद बादशाह ने चुपके से अपनी खिड़की के बाहर झांका तो वहां खड़ी लंबी कतार को देख वह बेहद खुश हो गए। देखो बीरबल, हमारी जनता हमें कितना चाहती है। हमारे एक आदेश से वह एक बाल्टी दूध बहाने आ गए। बीरबल मुस्कुराते हुए बोले। अब वह प्यार है या डर, वह तो वक्त ही बताएगा। फिर क्या? अगले दिन बीरबल ने दोबारा दूत को एक संदेश के साथ जनता के बीच भेजा। सुनो, सुनो! सुनो। आज फिर बादशाह ने एक बाल्टी दूध लाने का आदेश दिया है। पर इस बार वह दूध सभी को नए घड़े में डालना होगा। और तो और, बादशाह खुद वहां खड़े होकर इस कार्य को देखेंगे। यह सुन तो वहां खड़े लोगों के पसीने छूटने लगे। अरे! बादशाह वहां मौजूद होंगे। अब क्या करें? अब क्या कर सकते हैं? चुपचाप उनके आदेश को मानो। फिर क्या? कुछ देर बाद एक एक कर लोग आते और नये घड़े में एक बाल्टी दूध डाल कर बादशाह को नमन कर चले जाते। सूरज ढलते ढलते वो घड़ा दूध से भर गया और बादशाह की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। देखा बीरबल, लगातार दूसरे दिन भी जनता ने बिना किसी सवाल के हमारे बेतुके आदेश को मान लिया। अब तो मानते हो ना कि हमारी जनता हमसे बहुत प्यार करती है। इसमें तो कभी कोई शक था ही नहीं। बादशाह महान। यह तो बस इस बीरबल के मन में आपके प्रति जलन के कारण हमें यह साबित करना पड़ा। मैं तो कहता हूँ सजा के तौर पर इसे यह सारा दूध पीने का आदेश दे दिया जाए। रुको, ज़रा सब्र करो, उससे पहले ज़रा घड़े को देख लें। जैसे ही बीरबल ने ताली बजाई, कुछ सिपाहियों ने आकर पहले घड़े के ऊपर से ढक्कन को हटाया और जब सबने उसमें झांका तो वो लोग ये देखकर हैरान हो गए कि उसमें दूध से ज्यादा पानी भरा हुआ था। ये क्या? इतना पतला दूध? बिल्कुल। क्योंकि इस दूध में मिलावट है। ठीक वैसे ही जैसे जनता की भावनाओं में आपके प्रति। क्या मतलब? मतलब ये कि आज जब आप खुद उनके सामने मौजूद थे तो उन्होंने आपके डर के कारण बाल्टी भर दूध डाल दिया। लेकिन कल जब आप नहीं थे। अरे सुनो, मैंने घड़ा देखा है। उस पर एक बड़ा सा ढक्कन है जिसके छेद से हमें दूध डालना है। तो क्यों ना हम उसमें पानी डाल दें। वाह! बहुत सही योजना है। बाकियों के दूध के बीच में हमारा पानी मिल जाएगा। किसी को कुछ पता नहीं चलेगा। बस ठीक इस प्रकार कई लोगों ने बस दिखावे के लिए दूध की जगह पानी डाल दिया। ठीक उसी प्रकार जैसे कई लोग आपको दिखावे के लिए अपने डर की जगह सम्मान और प्यार जताते हैं। यह सुन बादशाह को बीरबल की बात समझ आ गई। शुक्रिया बीरबल, आज तो तुमने हमारी आँखे खोल दी। जी महाराज, मेरा इरादा बस इतना था कि आप किसी की चिकनी चुपड़ी बातों में आकर उन पर विश्वास न करें। सही बात है। अब मैं चलता हूं। यह देख सब हंस पड़े और हमने यह सीखा कि झूठा प्यार हमारा दर्द का कारण बन सकता है। इसलिए ऐसे लोगों से सतर्क रहे, सावधान रहे। और देखते रहे। अकबर और बीरबल केवल रात्रि किस पर?

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शाही घोड़ा। एक दिन नेपाल के राजा सूरमा नेपाली ने अपने मुख्य मंत्री को किसान के कपडे लाने को कहा जिसे सुन वो चौंक गया। सब्जी तुम किसान के कपड़ों का क्या करोगे? तुमको तो हल चलाना भी नहीं आता। वो पहन के अकबर की राजधानी को। हम सुन सुन के मंत्री बीरबल बहुत होशियार है। तो मैं उसका परीक्षा लेकर हमारा सबसे चहेता शाही घोड़ा टट्टू। उसको सवारी के लिए तैयार करो। कुछ दिनों बाद राजा सूरमा नेपाली किसान के भेस में अपने शाही घोड़े पर दिल्ली की सीमा पर पहुंच गए। वहां की व्यस्त जनता, शोर शराबे से भरे बाज़ार, खान पान का सम्मान देख वो काफी खुश हुए। तभी उनके शाही घोड़े टट्टू ने उन्हें भूख के कारण आवाज़ लगाई। टट्टू तू भूख तो हमको भी लगी है। राजा ने यहां वहां देखा तो उन्हें एक तबेला नज़र आया और वो उस ओर चल दिए। वो जैसे ही वहां पहुंचे तो देखा कि एक क्रूर सेठ किसी विकलांग व्यक्ति को धक्के मार कर तबेले से बाहर निकाल रहा है। चल निकल यहां से। जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं और घोड़ी चढ़ने है। वो विकलांग व्यक्ति जिसका नाम चंदू चमन था, अपना सिर झुकाए वहां से निकलने लगा। तभी राजा ने उसे रुकवा कर पूछा। कि क्यों भाई साहब क्या हुआ उसे तुमको धक्का क्यों मारते? जैसे ही चंदू ने राजा के घोड़े को देखा, उसकी तो आंखें ही चमक गई। अरे वाह! आपका घोड़ा तो काफी सुंदर है। वो तो है पर तुम्हारा और उस सेठ का क्या हाल है? अरे अब क्या बताऊं सेठ मुझे आगरा जाना था। पर जैसे कि आप देख सकते हो मैं एक पांव से अपाहिज हो तो इतनी दूर सफर करना मेरे लिए मुमकिन नहीं है। राजा को उस व्यक्ति की हालत देख उस पर दया आने लगी। हम समझ सकते है और उसके लिए सेठ जी से मैंने दरख्वास्त की कि मुझे कुछ घंटों के लिए घोड़ा उधार दे दो। परन्तु उन्होंने मेरी एक ना मानी और मुझे धक्के मार कर निकाल दिया। उस लाचार व्यक्ति को यूँ रोता देख राजा को बहुत बुरा लगा और उन्होंने उसकी मदद करने का फैसला किया। अच्छा अच्छा रो मत, मैं आगरा ही जा रहा है तो तुम्हें मेरे घोड़े पर छोड़ देता हूँ। आओ बैठ जाओ फिर राजा। सूरमा ने घोड़े से उतर कर चंदू को घोड़े की पीठ पर चढ़ाया और क्योंकि टट्टू भी थक चुका था और दो लोगों का बोझ उठाना उसके लिए मुश्किल होता। इसलिए राजा ने स्वयं पैदल ही सफर करने का फैसला किया। रास्ते में दोनों ने एक दूसरे को अपने अपने जीवन की कहानियां और अनुभव बताए, परंतु राजा ने अपनी असलियत अभी भी उससे छुपाकर रखी। कुछ घंटों बाद जब वे आगरा पहुंचे तो राजा सूरमा बोले। सिंधु, हम आगरा पहुंच गए। आओ, मैं तुम्हें घोड़े से उतरने में मदद कर देता हूं। और तभी चंदू ने तो अपने तेवर ही बदल दिए। अरे, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कि तुम मुझे मेरे ही घोड़े से उतरने के लिए कहो। यह सुन तो राजा सूरमा बिल्कुल हक्के बक्के रह गए। क्या? यह क्या कह रहे तुम? चंदू मौका देख चंदू ने और चिल्लाते हुए कहा। अरे मैं तो तुम्हें बस आगरा तक रास्ता बता रहा था। तुम्हारी मदद के बदले तुम मुझ से धोखाधड़ी करोगे? शर्म आनी चाहिए तुम्हें एक विकलांग व्यक्ति की सवारी उससे छीनते हुए। ये क्या बकवास है? मेरा घोड़ा तुम्हारा कब से बन गया? तुम्हारी याददाश्त कम है क्या? जब तुम मुझे दिल्ली शहर के बाहर मदद मांगते दिखे थे, तभी से यह घोड़ा मेरा ही था। नहीं, ये घोड़ा मेरा ही मेरा है, मेरा ही। ये शोर शराबा सुन दोनों के आस पास भीड़ इकट्ठा होने लगी। घुड़सवार की हालत देख लोगों को भी उस पर दया आई और उन्होंने उसी का साथ दिया। अरे रे, क्या जमाना आ गया है। लोग अब लाचारों को भी लूटने लगे हैं। देखो भाई! मैं तो कहता हूं मारो, इसे मारो, मारो, मारो। भीड़ को अपने खिलाफ देख तो राजा को भी समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या कहे और तभी वहां दो सिपाही आ गए। तुम दोनों का फैसला अब दरबार में होगा। चलो दरबार पहुँचकर उन दोनों ने अपने अपने पक्ष। बादशाह को सुनाए। परंतु सूरमा नेपाली ने अभी भी अपनी हकीकत छुपाई रखी। जिसके कारण वहाँ बैठे बीरबल को शक आने लगा कि यह व्यक्ति कुछ न कुछ झूठ जरूर बोल रहा है। परंतु चंदू के भाव भी कुछ ठीक नहीं थे जिसके कारण सच और झूठ बताना मुश्किल हो रहा था। फिर क्या बीरबल खड़े हुए और उन्होंने घोड़े को अच्छे से परखा और उन दोनों से कहा। एक काम करो आज के लिए इस घोड़े को तुम यहाँ दरबार में ही छोड़ जाओ और कल सुबह। मैं खुलासा करूँगा कि तुम दोनों में से सच्चा मालिक कौन है। यह सुन वे दोनों वहाँ से चले गए और बीरबल ने सोचा। ये दोनों व्यक्ति तो अपने आप को साधारण बता रहे हैं पर यह घोड़ा यह तो शाही लगता है। कहीं ये दोनों ही झूठ तो नहीं बोल रहे। पता लगाना होगा। उस शाम जब बीरबल शाही बगीचे में टहल रहे थे तब उनके पास शाल ओढ़ा हुआ एक जासूस आया। उसने बताई बातें सुन बीरबल चौक गए। तो मेरा शक सही निकला। इतना बड़ा झूठ। अगली सुबह बीरबल ने चंदू और राजा सूरमा को शाही अस्तबल में बुलाया और कहा। आप दोनों मानते हैं कि यह घोड़ा आपका है। है न? हां, देखा। यह तय करना तो मुश्किल है परंतु क्योंकि आप दोनों यहां के मेहमान हो तो बादशाह अकबर के आदेश पर हम आप दोनों को एक एक घोड़ा दे देते हैं। कहो मंजूर है? मंजूर है। अरे, ऐसी कैसी? वह सिर्फ एक घोड़ा नहीं, मेरी शान है। शान। उसे सुन चंदू ने भी अपने सुर बदल दिए। हा हा हा। उस घोड़े को मैंने बचपन से पाला है। वह बस सवारी नहीं मेरा सहारा भी है। यह तो अब मुसीबत बढ़ गई। वो कैसे? वो दरअसल हमारे अस्तबल में ठीक वैसे ही बहुत से घोड़े हैं। अब तुम्हारे घोड़े को पहचानना मुश्किल होगा। तो एक काम करो। तुम दोनों एक एक कर अंदर जाकर खुद ही अपना घोड़ा ढूँढ़ लो। चन्दू पहले तुम जाओ और घोड़ा चुनने के बाद अस्तबल के पीछे इंतज़ार करना। फिर क्या? पूरे आत्मविश्वास के साथ चंदू भीतर तो गया पर अंदर जाते ही इतने सारे हूबहू घोड़े देख वो उलझन में पड़ गया। अरे रे! अब इनमें से वह कल वाला घोड़ा कैसे पहचानूँ इस पर माथापच्ची करके कोई फायदा नहीं। अब कोई भी घोड़ा ले लेता हूँ। जाने दो। फिर चंदू एक घोड़े की लगाम पकड़ उसे वहाँ से ले गया। कुछ देर बाद राजा सूरमा अंदर आए और इतने सारे घोड़े देख चिंतित हो गए। परंतु तभी उनकी नजर उनके चहीते सवारी पर पड़ी। ओ टट्टू टट्टू पिता ने मुझे। अस्तबल के बाहर। दोनों व्यक्ति अपने अपने घोड़ों के साथ खड़े थे। तब बीरबल वहां आए। क्यों? कल वाला घोड़ा मिला या नहीं? हां, मिला। चंदू मैं तुमसे नहीं राजा सूरमा नेपाली से पूछ रहा हूं, उन्हें उनका घोड़ा मिला या नहीं? यह सुन तो दोनों चौंक गए और राजा सूरमा बोले। बीरबल तो तुम्हें पता था मैं कौन है और यह मेरा ही घोड़ा है। वह दरअसल इस घोड़े को देख मैं समझ गया था कि यह कोई शाही घोड़ा है। पर क्योंकि राजा सूरमा ने अपनी असलियत छुपाई हुई थी तो कहना मुश्किल था कि यह शाही घोड़ा आप दोनों के पास कैसे आ गया था? फिर मैंने तुम दोनों के पीछे एक जासूस छोड़ा और। बीरबल जी वो चंदू तो चमन ही है। पर वो किसान कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि राजा शर्मा नेपाली है। राजा बीरबल जी, सच की तलाश में मैं इधर आया था। वो मैंने देख लिया। तुम वाकई बुद्धिमान नहीं। शुक्रिया राजा सुरमा। पर जब तुम्हें पता ही चल गया था तो तुमने हमें घोड़ा चुनने क्यों भेजा? दरअसल, मैं बस जासूस की बताई बातों पर यूं ही यकीन नहीं कर सकता था। तो पूरी तरह पक्का करने का यही तरीका था। और ऊपर से इस चंदू चमन को सबूत के साथ भी तो पकड़ना था। ये सुन तो चंदू डर से थरथराने लगा और बोला। मुझे माफ कर दो। बीरबल दरअसल मेरी विकलांगता की वजह से मुझे आने जाने में बहुत परेशानी होती है और नया घोड़ा लेने लायक मेरे पास पैसे भी नहीं है। इसलिए मजबूरी में मैंने ये गलत कदम उठाया। चंदू की इस बात पर बीरबल ने विचार किया और बोले।

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अकबर और बीरबल की पहली भेंट एक खुशी भरी दोपहर में। सारा दरबार बीरबल के सुनाये हुए चुटकुले पर पेट पकड़ कर हँस रहा था और तब पड़ोसी राज्य से आए एक मेहमान रहमान नवाज हँसते हुए बोले, वाह! बादशाह अकबर आपका सलाहकार। बीरबल तो बेहद होनहार और चालाक है। अगर एक और ऐसा नमूना हो तो हमें भी दे दो। हा हा हा। सही कहा तुमने। पर ऐसा नमूना हर किसी के नसीब में नहीं होता। उसके लिए रास्ता भटकना पड़ता है। रास्ता भटकना पड़ता है। मैं कुछ समझा नहीं। चलो फिर आज हम दरबार को। बीरबल और हमारी पहली मुलाकात की कहानी बताते हैं। और फिर क्या था बादशाह ने दरबार को वो किस्सा बताना शुरू किया और बताया। एक दिन बादशाह अपने सिपाहियों के साथ जंगल के रास्ते आगरा जा रहे थे। तभी अचानक तेज तूफान आन पड़ा और उनके घोड़े डर के कारण यहां वहां दौड़ने लगे और जब तक तूफान थमा बादशाह अपना रास्ता भटक चुके थे। उस सुनसान रास्ते पर कोई नहीं था और आदमखोर जानवरों की आवाज आ रही थी। कुछ देर चलकर बादशाह को सामने तीन रास्ते दिखाई दिए। इसमें से एक रास्ता सही था और बाकी दो गलत। जिनके पार और घना जंगल था, जहां कोई एक बार जाता तो फिर लौटकर नहीं आता और तूफान में बादशाह अपना नक्शा भी खो बैठे थे, जिसके कारण वे बेहद दुविधा में आ गए थे और उसी वक्त बादशाह को झाड़ियों के पीछे से कुछ आवाज सुनाई दी जिससे बादशाह घबरा गए। यह कैसी आवाज है? कहीं कोई शेर या चीता तो नहीं? वह आवाज और पास आती गई और बादशाह के तो मानो पसीने छूट गए। तभी अचानक पेड़ के पीछे से निकला एक व्यक्ति किसी सभ्य इंसान को देख। बादशाह ने राहत की साँस ली और उस व्यक्ति को आवाज लगाते हुए कहा सुनो। हम रास्ता भटक गए हैं। तो क्या आप हमें बता सकते हैं इन तीनों में से कौन सा रास्ता आगरा जाता है? यह सुन वो व्यक्ति जोर से हंस पड़ा। हा हा हा हा। उसे यूँ हँसते हुए देख बादशाह काफी अचंभित हुए और पूछा। इसमें इतनी हंसने वाली क्या बात हो गई? हमने तो केवल यह पूछा कि आगरा कौन सा रास्ता जाता है? क्षमा चाहता हूँ महाराज! पर कभी कोई रास्ते कहीं नहीं जाते। रास्ते तो वही रहते हैं। उस पर चलकर हम जाते हैं। तो आपको यह प्रश्न पूछना चाहिए था कि कौन से रास्ते से हम आगरा जा सकते हैं? बीरबल की यह हाजिरजवाबी सुन बादशाह प्रसन्न हुए। हा हा हा। यह बात तो सही कही तुमने। काफी होशियार मालूम लगते हो। क्या नाम है तुम्हारा और क्या काम करते हो जी? इस नाचीज़ का नाम महेश दास है और मैं यहाँ के महाराज श्री रामचरण जी का मंत्री हूँ। तुमसे मिलकर बेहद खुशी हुई। मंत्री महेश दास क्या तुम बता सकते हो इन तीनों रास्तों में से कौन से रास्ते से हम आगरा जा सकते हैं? क्यों? सही पूछा ना? जी बिल्कुल। अगर ज़िन्दगी में कभी ऐसा मोड़ आ जाए तो हमें उस रास्ते को गौर से देखना चाहिए जहाँ लोगों के कदमों के निशान ज्यादा से ज्यादा दिखें। अधिक तौर पर वही रास्ता सुरक्षित होता है और इस मामले में मुझे दाहिना रास्ता सही लगता है। यह तर्क सुन बादशाह बीरबल से और ज़्यादा प्रभावित हुए और बोले। वाह महेश बाबू वाह! तुम्हारी अक्लमंदी तो लाजवाब है। हमारे दरबार में तुम जैसे रत्न की बेहद जरूरत है। तो क्या तुम हमारे यहाँ मंत्रीपद की नौकरी करोगे। इसे सुन बीरबल विचार करने लगे और बोले। बेहद शुक्रिया महाराज। पर इस वक्त मैं इस प्रस्ताव का स्वीकार नहीं कर सकता। बादशाह ने अपनी बेहद कीमती हीरे की अंगूठी निकाली और उसे बीरबल को देते हुए कहा। कोई बात नहीं, इस भेंट को हमारी तरफ से रख लो और जब भी तुम्हारा मन करे तो इस अंगूठी को निशानी के तौर पर ले। हमारे दरबार में बेझिझक आ जाना। अभी हम चलते हैं। हमें तुम्हारा इंतजार रहेगा। यह कहकर बादशाह वहां से चले गए और महेश दास भी अपने रास्ते निकल गए। और फिर समय बीतता गया। महेशदास के गांव के सारे मित्र गांव से बाहर घर बसाने लग गए। जिस वजह से उसका मन गांव में अब लगने से रहा। तभी उसके दिमाग की बत्ती चमकी और उसे याद आया बादशाह अकबर की अंगूठी और उनका प्रस्ताव। उसने सोचा कि अगर मैं गांव बदल कर कहीं और घर बसा लूं तो नए। मित्र और नया संसार दोनों भी पहले से शुरू कर सकता हूं। इस तरह से महेश दास डिब्बी में अंगूठी लिए बादशाह अकबर के दरबार की तरफ चल दिए। कुछ दिनों का सफर तय करने के बाद महेश दास दरबार के द्वार पर आ पहुंचे। तब वहां खड़े एक सिपाही ने उन्हें रोक लिया और पूछा रुको! कौन हो तुम? और दरबार में क्या काम है तुम्हारा? मैं महेश दास। दो साल पहले बादशाह ने मुझे यहां आने का न्योता दिया था। क्या बादशाह अकबर ने तुम्हें बुलाया था तुम्हें अपने आप को? कभी देखा है अपने जिंदगी में कभी आईना रखते हो क्या तुम? यह सुन महेश दास मुस्कुराए और उसने डिब्बा निकाल के डिब्बी के अंदर की अंगूठी सिपाही को दिखाते हुए कहा। यह अंगूठी हमें बादशाह अकबर ने सबूत के तौर पर दी थी। सिपाही ने बादशाह अकबर की कीमती अंगूठी देखी और सोचा। यह तो बादशाह अकबर की सबसे कीमती और नायाब अंगूठी है। शायद बादशाह अकबर इससे बहुत प्रसन्न हुए होंगे और आज यह उसी का इनाम लेने आया हो। इससे इनाम का आधे से भी ज्यादा हिस्सा मांगना ठीक ही रहेगा। आज तो बहुत बड़ा बकरा हाथ लगा है। ऐसे कैसे जाने दूं मैं इसे? ठीक है, ठीक है, मैं तुम्हें अंदर जाने की इजाजत दे दूंगा। पर मेरी एक शर्त है। आज तुम्हें बादशाह इनाम में जो भी देंगे, उसका आधा हिस्सा मुझे देना होगा। इस पर बीरबल मुस्कुराए और बोले। हां हां, आधा क्यों? मैं तो आज के इनाम का पूरा हिस्सा तुम्हें देने को तैयार हूं। सच मुच बस तुम मुझे एक बार बादशाह से मिलने जाने तो दो। यह सुन तो जैसे लालची सिपाही के मुंह से लार टपकने लगी और उसने तुरंत महेशदास को अंदर जाने की अनुमति दे दी। भीतर पहुंचते ही बादशाह को महेश दास को पहचानने में देर न लगी और महेश दास ने भी तुरंत दरबारियों को अपनी हाजिरजवाबी से मोह लिया, जिससे दरबार का माहौल खुशनुमा हो गया। हा हा हा हा हा। बस करो। महेश दास की हंसी से हम सबका पेट न फट जाए। कहो क्या इनाम चाहिए तुम्हें? इस पर बीरबल बिना सोच विचार किए तुरंत बोले। मुझे इनाम में 100 कोड़े दिए जाएँ। यह सुन सारे दरबारी चौंक गए। पर बादशाह अकबर जानते थे कि दास एक बहुत ही चतुर और समझदार इंसान है। वो यूँ ही 100 कोड़े की माँग नहीं करेगा। हम जानते हैं तुम्हारे दिमाग में कोई बात होगी। तुम बेझिझक होकर बताओ कि 100 कोड़ों की मांग क्यों की है तुमने? इस पर बीरबल ने बताया कि कैसे? दरबार के द्वार पर खड़े सिपाही ने उसे दरबार के अंदर आने की रिश्वत मांगी थी। जिस पर बीरबल ने उससे यह वादा किया कि आज मिला हुआ सारा इनाम वो उसे दे देगा। ये बात सुन अकबर ने उस सिपाही को तुरंत हाजिर होने को कहा और रिश्वत मांगने के जुर्म में उसे कालकोठरी में डाल दिया। फिर वो महेशदास से बोले। तुम्हारा बहुत बहुत शुक्रिया महेश। हमारे कहे अनुसार आज से तुम हमारे रत्नों का एक हिस्सा हो और तुम्हारी बुद्धिमत्ता और हिम्मत को मद्देनजर रखते हुए तुम्हें बीरबल के नाम से संबोधित करते हैं। तो इस तरह महेश दास बन गए बीरबल। और हमारे दरबार के नौ रत्नों में से सबसे अनमोल रत्न। यह सुन दरबार तालियों से गूँज पड़ा और मेहमान रहमान वहां से अचानक उठ कर चल पड़े। रहमान कहाँ चल दिए रास्ता भटकने। यह सुन सभी हंस पड़े और हमने आज बीरबल और अकबर के इस इत्तेफाक की मुलाकात के बारे में सीखा।

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https://youtu.be/ZUqYMP4MWEs?si=tuYvKFwdGs1V19Z4

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