Success Story

https://youtu.be/G4f5i4PXXj8?si=iT6bj0QJ4N8xq31e

https://youtu.be/vHHEqYY2wNw?si=w84FJZlvaPXH_mZc

1) https://youtu.be/RJpGiLzbGSw?si=6n0f6zjHojMND12i

आपको पता है इंडिया के हाईवेज पर दौड़ने वाला हर तीसरा ट्रक या बस अशोक लीलैंड का है यह सिर्फ एक कंपनी नहीं है बल्कि देश के ट्रांसपोर्ट सिस्टम की बैकबोन है चाहे मुंबई की आइकॉनिक डबल डेकर बस हो या इंडियन आर्मी का स्टेलियन ट्रक या फिर स्कूल के बच्चों को सुरक्षित घर पहुंचाने वाली यह सनशाइन बसेस अशोक लीलैंड हमारे हर सफर का हिस्सा है लेकिन दुनिया के वन ऑफ द लार्जेस्ट बस और ट्रक मैन्युफैक्चरर्स में अपनी जगह बनाने वाली इस कंपनी की शुरुआत इतनी आसान नहीं थी पहले तो भारत के लोगों ने ही इसे नकारा फिर इस कंपनी को बनाने वाले फाउंडर एक प्लेन क्रैश में मारे गए और ऐसे ही अनगिनत स्ट्रगल्स का सामना करके कैसे यह कंपनी आज इस मुकाम पर खड़ी है आज हम पूरी स्टोरी को डिटेल में जानने वाले हैं तो दोस्तों कहानी स्टार्ट होती है 1948 से जब इंडिया को आजाद हुए सिर्फ एक साल हुआ था पंडित जवाहरलाल नेहरू उस टाइम देश के व्यापारियों को मेक इन इंडिया के लिए इंस्पायर कर रहे थे और तभी उनकी आवाज रघुनंद सरण नाम के एक फ्रीडम फाइटर तक भी जा पहुंची जो कि बंटवारे के बाद अपना सब कुछ छोड़-छाड़ करर रावलपिंडी से चंडीगढ़ आ गए थे आजादी के समय वह गांधी जी और नेहरू जैसे नेताओं से काफी इंस्पायर्ड थे और उनका मानना था कि भारत को सिर्फ पॉलिटिकल आजादी ही नहीं बल्कि इकोनॉमिक इंडिपेंडेंस की भी जरूरत है उन्होंने महसूस किया कि भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट बहुत जरूरी है और इसी सोच के साथ उन्होंने ट्रांसपोर्ट सेक्टर को चुना क्योंकि वह जानते थे कि एक मजबूत ट्रांसपोर्ट सिस्टम देश के ग्रोथ के लिए बैकबोन बन सकता है असल में रावलपिंडी में रघुनंदन जी के पापा की एक कार वर्कशॉप थी जिसमें उन्होंने बचपन से ही काम किया था और यहीं से उनके अंदर गाड़ियों के प्रति एक लगाव सा पैदा हो गया अब जब उन्होंने नेहरू जी का विजन सुना तो यह ठान लिया कि इंडिया में हम खुद की गाड़ियां बनाएंगे और भारत को अपने दम पर आगे लेकर जाएंगे इसी सोच के साथ उन्होंने अपनी सेविंग्स और फैमिली सपोर्ट से इन्वेस्टमेंट जुटाया और 7 सितंबर 1948 को चेन्नई जो तब का मद्रास हुआ करता था वहां से अशोक मोटर्स की शुरुआत कर दी लेकिन यह अशोक कौन था असल में रघुनंदन सरण ने इस कंपनी का नाम अपने इकलौते बेटे अशोक के नाम पर रखा था लेकिन यहां एक चीज यह भी समझ नहीं आई कि जब रघुनंदन शरण चंडीगढ़ में रहते थे तो उन्होंने चेन्नई जाकर कंपनी स्टार्ट क्यों की असल में इसके पीछे दो मेजर रीजंस थे पहला यह कि उस समय चंडीगढ़ में इंडस्ट्री के लिए जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर और रिसोर्सेस मौजूद नहीं थे जबकि चेन्नई इंडस्ट्रियल हब बनता जा रहा था जहां कई सारी फॉरेन कंपनीज अपने प्रोडक्शन सेंटर सेटअप कर रही थी इसीलिए कंपनी का हेड ऑफिस चेन्नई के राजाजी सलाई इलाके में बनाया गया जो कि आज भी वहीं पर मौजूद है शुरुआत में अशोक मोटर्स ने इंग्लैंड से पार्ट्स को इंपोर्ट करके ऑन a40 कार्स को असेंबल किया और अपने देश में बेचना स्टार्ट कर दिया हालांकि आजादी के बाद का टाइम भारत के लिए इकोनॉमिकली काफी वीक था अशोक मोटर्स को रॉ मटेरियल और स्किल्ड लेबर जुटाने में काफी प्रॉब्लम फेस कर ने पड़े कई बार तो फंडिंग की कमी की वजह से प्रोडक्शन रुकने के ककार पर आ गया लेकिन फिर भी रघुनंदन जी ने दिन रात मेहनत की और इंडिया में ऑन a40 कार्स की मैन्युफैक्चरिंग भी शुरू कर दी लेकिन अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर उन्हें ऐसे वर्कर्स कहां से मिले जो कि कार बनाने वाली फैक्ट्री में काम कर पाएं एक्चुअली उन्होंने इंडियन वर्कर्स को ट्रेन करने के लिए प्रोग्राम शुरू किए उन्होंने ब्रिटिश इंजीनियर्स के साथ कोलबोर्न में भारतीय इंजीनियर्स और मैकेनिक्स को टेक्निक सिखाई और फिर मैन्युफैक्चरिंग के टाइम जब उन्होंने इंडियन रोड के अकॉर्डिंग ऑन a40 कार्स में बदलाव किए तो फिर उनका यह बिजनेस काफी अच्छा चल पड़ा हालांकि लोगों को इंडिया मेड व्हीकल्स पर भरोसा नहीं था मैक्सिमम कस्टमर फॉरेन ब्रांड्स जैसे फड और शेवरलेट को ज्यादा प्रेफर करते थे लेकिन फिर रघुनंदन जी ने लोगों को कन्वेंस किया कि इंडियन व्हीकल्स भी भरोसेमंद और ड्यूरेबल हो सकते हैं क्योंकि यह यहीं के रोड कंडीशंस के हिसाब से बनाए गए होते हैं खैर इन सभी बातों से लोग तो कन्वेंस हो गए पर फिर रघुनंदन शरण ने देखा कि भारत की तेजी से डेवलप हो रही इकॉनमी को पैसेंजर कार से कहीं ज्यादा कमर्शियल व्हीकल्स की जरूरत है लेकिन कमर्शियल व्हीकल्स को बनाने के लिए उनके पास रिक्वायर्ड टेक्नोलॉजी नहीं थी ऐसे में उन्होंने सोचा कि क्यों ना किसी ऐसी कंपनी के साथ में पार्टनरशिप करके आगे बढ़ा जाए जो कि पहले से ही सेक्टर में काम कर रही हो और फिर इस तरह से लीलैंड मोटर्स के साथ में बातचीत आगे बढ़ाई गई जो कि इंग्लैंड की टॉप हैवी व्हीकल मैन्युफैक्चरर्स में से एक था पर दोस्तों सिर्फ पार्टनरशिप से प्रॉब्लम सॉल्व नहीं होती क्योंकि कुछ बड़ा करने के लिए फंड्स की जरूरत तो पड़ती ही ऐसे में रघुनंदन जी के कहने पर मद्रास स्टेट गवर्नमेंट ने कुछ इन्वेस्टर्स के साथ मिलकर कंपनी में अच्छा खासा इन्वेस्टमेंट किया अब मद्रास स्टेट सुनकर कंफ्यूज मत होएगा क्योंकि उस टाइम मद्रास नाम का एक शहर नहीं बल्कि एक पूरा राज्य था जिसमें आज का तमिलनाडु आंध्र प्रदेश कर्नाटका और केरल के कुछ पार्ट्स आते थे खैर रघुनंदन शरण लीलैंड मोटर्स के साथ में इस डील को फाइनल कर पाते उससे पहले यह सी ट्रेजडी हुई जिसने पूरी कंपनी के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया एक्चुअली 1953 में रघुनंदन शरण एक प्राइवेट एयरक्राफ्ट से डेल्ली टू मुंबई बिजनेस क्रिप पर जा रहे थे लेकिन अचानक मैकेनिकल फेलियर की वजह से प्लेन क्रैश हो गया और दोस्तों यह क्रैश इतना खतरनाक था कि इसमें ट्रेवल कर रहे सभी पैसेंजर्स की मौके पर ही मौत हो गई असल में उस समय एविएशन टेक्नोलॉजी इतनी एडवांस नहीं थी जिसकी वजह से भारत ने एक ऐसे देशभक्त को खो दिया जो कि आगे चलकर देश के लिए बहुत कुछ पॉजिटिव चेंजेज ला सकता था खैर अब इन्वेस्टर्स के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि अशोक मोटर्स को संभालेगा कौन क्योंकि रघुनंदन सरन के बेटे अशोक की उम्र उस समय काफी कम थी और उनके पास इंडस्ट्री से रिलेटेड कोई एक्सपीरियंस भी नहीं था इस प्रॉब्लम को देखते हुए मद्रास गवर्नमेंट और शेयर होल्डर्स ने कंपनी को अपने अंडर में ले लिया और उन्होंने एक साथ मिलकर रघुनंदन शरण का सपना पूरा करने के लिए 1954 में लीलैंड मोटर्स के साथ में ऑन पेपर पार्टनरशिप कर ली इस डील के फाइनल होते ते ही अशोक मोटर्स का नाम बदलकर अशोक लीलैंड रख दिया गया लीलैंड मोटर्स ने कंपनी को अच्छे से आगे बढ़ाने के लिए कुछ ब्रिटिश एक्सपर्ट्स को इंडिया भेजा जिन्होंने भारत के एंप्लॉयज को टेक्निकल ट्रेनिंग दी और फिर भारत के टूटे-फूटे रोड को देखते हुए 1954 में अशोक लीलैंड ने अपना पहला हैवी ड्यूटी ट्रक कॉमेट लॉन्च किया जो कि 7500 किलो तक का लोड कैरी कर सकता था असल में उस टाइम तक ज्यादातर ट्रक्स इंपोर्टेड हुआ करते थे जो कि काफी महंगे तो थे ही साथ ही उनकी मेंटेनेंस भी काफी खर्चीली थी लेकिन अशोक लीलैंड के कॉमेट ट्रक ने इन दोनों प्रॉब्लम का ही एक परफेक्ट सलूशन दिया क्योंकि यह ना सिर्फ ड्यूरेबल में इंपोर्टेड ट्रक्स से बेटर थे बल्कि इनका मेंटेनेंस भी काफी सस्ता और आसान था यही वजह थी कि कॉमेट इंडियन मार्केट में एक गेम चेंजर ट्रक साबित हुआ कमाल की बात यह थी कि इसकी पॉपुलर सिर्फ बिजनेसमैन और ट्रांसपोर्टर्स तक ही सीमित नहीं रही बल्कि इंडियन आर्मी ने भी इस व्हीकल पर अपना भरोसा जताया और फिर कॉमेट ने भी अपनी ब बेहतरीन स्ट्रेंथ और रिलायबिलिटी से आर्मी के कई सारे ऑपरेशंस को सक्सेसफुली पूरा करके हर किसी का दिल जीत लिया यही वजह थी कि 1955 के एंड तक सिर्फ 252 एंप्लॉई के साथ में अशोक लीलैंड ने 1000 यूनिट्स बेच दिए और यह अचीवमेंट उस समय के हिसाब से बहुत बड़ी थी इस सक्सेस को देखकर कंपनी को समझ आ गया कि कमर्शियल व्हीकल मार्केट में उनका फ्यूचर ब्राइट है इसीलिए 1963 में उन्होंने कॉमेट ट्रक्स के चेस पर पैसेंजर बॉडी लगाकर कॉमेट बसेस भील लच कर दिए अब दोस्तों कॉमेट की पॉपुलर के बाद से अशोक लीलैंड ने भांप लिया था कि फ्यूचर में हैवी व्हीकल्स की डिमांड और भी ज्यादा बढ़ने वाली है इसीलिए 1966 में उन्होंने मार्केट की जरूरतों को समझते हुए 10 टन और 30 टन लोड कैरी करने वाले ट्रक्स भी लांच करने का सोचा लेकिन इस तरह के हैवी ड्यूटी ट्रक्स के लिए ज्यादा पावरफुल इंजन और मजबूत चेचिस की जरूरत थी पर उस टाइम इंडिया में इन कंपोनेंट्स को लोकली मैन्युफैक्चर करने की काबिलियत नहीं थी इसीलिए इनिशियल प्रोडक्ट क् के लिए बहुतसारे मेजर पार्ट्स इंपोर्ट करने पड़े जिससे कि उनके ट्रक्स की कीमत काफी ज्यादा बढ़ गई अब प्रॉब्लम यह थी कि उस समय देश पहले से ही आर्थिक मुश्किलों से गुजर रहा था ऐसे में इतने महंगे ट्रक्स खरीदेगा कौन इसी प्रॉब्लम को ही समझते हुए अशोक लीलैंड ने एक बोल्ड फैसला लिया कि जितना भी पॉसिबल है ट्रक्स के जरूरी पार्ट्स का प्रोडक्शन इंडिया में ही किया जाएगा लेकिन यह काम तो इतना आसान था नहीं इसके लिए अशोक लीलैंड ने लोकल कंपनीज और एंप्लॉयज को ट्रेन करना शुरू कर दिया या ताकि वह हाई क्वालिटी पार्ट्स को देश के अंदर ही मैन्युफैक्चर कर सके इस तरह धीरे-धीरे इंपोर्टेड पार्ट्स पर डिपेंडेंसी कम होने लगी और कंपनी की प्रोडक्शन कॉस्ट भी काफी हद तक घट गई इसके बाद से 1967 में कंपनी के ऑपरेशंस की 20वीं साल गरा पर अशोक लीलैंड ने टाइटन डबल डेकर बस लॉन्च की बेसिकली यह बस अर्बन ट्रांसपोर्ट के लिए डिजाइन की गई थी जो पहले सिर्फ अमेरिका और टेक्नोलॉजिकल एडवांस देशों में देखने को मिलती थी टाइटन डबल डेकर बस मुंबई और इस तरह के बड़े और भेड़ भाड़ वाले शहरों के लिए किसी वरदान से कम नहीं थी इससे ना सिर्फ ट्रैफिक काफी कम हुआ बल्कि लोगों का सफर भी पहले से ज्यादा कंफर्टेबल हो गया यहां तक कि आज भी मुंबई में टाइटन सीरीज बसेस का एक अलग ही चाम देखने को मिलता है अब दोस्तों इसी दौरान अशोक लीलैंड ने एक और बड़ी प्रॉब्लम को टारगेट किया कमर्शियल व्हीकल्स में मैनुअल स्टेयरिंग ट्रक और बस ड्राइव सड़कों पर घंटों लंबा सफर तय करते थे और मैनुअल स्टेयरिंग उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन जाती थी अब हल्की गाड़ियां तो जैसे-तैसे मैनेज हो जाती थी लेकिन बड़े और भारी कमर्शियल व्हीकल्स चलाते समय स्टीयरिंग घुमाना काफी मुश्किल होता था खासकर जब गाड़ी मोड़नी हो या पार करनी हो तो ड्राइवर को पूरी ताकत लगानी पड़ती थी इसी प्रॉब्लम को सॉल्व करने के लिए 1969 में अशोक लीलैंड ने पहली बार पावर स्टेयरिंग इंट्रोड्यूस किया इसमें इलेक्ट्रिक मैकेनिज्म यूज किया गया था जिससे कि स्टेयरिंग को काफी आसानी से घुमाना पॉसिबल हो गया यह उस समय का एक बहुत बड़ा माइल स्टोन था जिसने कमर्शियल ड्राइविंग को पहले से कहीं ज्यादा कंफर्टेबल बना दिया अब दोस्तों इसी टाइम पर इंडियन आर्म फोर्सेस को एक ऐसे ट्रक की जरूरत महसूस हुई जो कि पहाड़ रेगिस्तान या किसी भी एक्सट्रीम वेदर कंडीशन और वॉर के मुश्किल हालातों में बिना रुके दौड़ सके ऐसे में कंपनी ने इंडियन आर्मी के लिए एक स्पेशल ट्रक डिजाइन करना शुरू किया जो कि इन सभी क्रिटिकल कंडीशंस को आसानी से हैंडल कर सके लेकिन असल परीक्षा तो तब शुरू हुई जब इस ट्रक का टेस्टिंग फेज आया कभी रेगिस्ता स्न की तपती गर्मी में से चलाया गया तो कभी ऊंचाई वाली बर्फीले इलाकों में भारी वजन के साथ स्टीप चढ़ाई की गई और तेज रफ्तार पर बैलेंस टेस्ट किया गया लेकिन बार-बार ट्रायल्स के दौरान कुछ ना कुछ गड़बड़ी हो जाती पर फिर भी अशोक लीलैंड की टीम ने हार नहीं मानी हर फेलियर से सीखते हुए उन्होंने डिजाइन में लगातार सुधार किए और नए-नए मॉडिफिकेशन करते गए और फिर दोस्तों आखिरकार महीनों की मेहनत के बाद 1970 में हिप्पो ट्रिपर नाम से वो ट्रक लॉन्च किया गया जिसने इंडियन आर्मी की ऑपरेशनल कैपेसिटी को कई गुना बढ़ा दिया लेकिन फिर आया साल 1973 जो कि अशोक लीलैंड के लिए एक मुश्किल दौर साबित हुआ क्योंकि इस साल लीलैंड मोटर्स जिसका नाम अब ब्रिटिश लीलैंड हो गया था उसने अशोक लीलैंड के साथ में अपना कोलबेन खत्म कर दिया असल में 1970 के दौरान ब्रिटिश लीलैंड सीरियस फाइनेंशियल प्रॉब्लम में फंसकर कर्ज में डूबता जा रहा था और फिर इस प्रॉब्लम को देखते हुए 1975 में ब्रिटिश गवर्नमेंट ने इसे अपने कंट्रोल में ले लिया और फिर इसी साल ब्रिटिश लीलैंड ने अशोक लीलैंड के साथ में अपनी पार्टनरशिप भी खत्म कर दी हालांकि पार्टनरशिप खत्म होने के बावजूद अशोक लीलैंड ने लीलैंड नाम को बरकरार रखा क्योंकि यह अब सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि कंपनी की पहचान बन चुका था इस मुश्किल समय में भी अशोक लीलैंड ने अपनी इनोवेशन को अपना हथियार बनाए रखा यही वजह थी कि पार्टनरशिप खत्म होने के बावजूद भी 1976 अशोक लीलैंड के लिए एक बेहतरीन साल साबित हुआ क्योंकि इसी साल पब्लिक ट्रांसपोर्ट में बढ़ती जरूरतों को समझते हुए कंपनी ने वाइकिंग बस की शुरुआत की इस बस की सबसे खास बात थी इसकी ड्युरेबिलिटी और फ्यूल एफिशिएंसी जिसने इसे स्कूल कॉलेजेस और गवर्नमेंट ट्रांसपोर्ट सिस्टम्स के बीच में सुपरहिट बना दिया लेकिन दोस्तों बस सेगमेंट में इनोवेशंस की कहानी यहीं पर नहीं रुकी 1978 में कंपनी ने चीता लॉन्च किया जो कि इंडिया की पहली रियर इंजन बस थी इसका इंजन पीछे होने की वजह से राइड ज्यादा स्मूथ हो गई और सेटिंग स्पेस भी ज्यादा मिला जबकि फ्रंट इंजन बसेस में इंजन आगे होने की वजह से सेटिंग स्पेस कम हो जाता था और स्टेबिलिटी भी थोड़ी कम होती थी और दोस्तों इस तरह से अपनी शानदार बसेस के सक्सेस के बाद से कंपनी ने चेन्नई के पास होसू में एक प्रोडक्शन प्लांट एस्टेब्लिश किया और अशोक टस्करावास से 1982 में अशोक लीलैंड ने महाराष्ट्र के शहर भंडारा में एक और प्लांट एस्टेब्लिश किया जहां ग बॉक्स को असेंबल किया जाता था साथ ही राजस्थान के शहर अलवर में भी एक यूनिट ओपन की गई जहां पैसेंजर चेचिस बनाई जा सके और फिर अपने इसी ग्रोथ को ही कायम रखते हुए 1986 में अशोक लीलैंड ने जापान की पॉपुलर कंपनी नो मोटर्स के साथ में कोलबेन कर लिया और दोस्तों यह कोलबेन अशोक लीलैंड के लिए एक टर्निंग पॉइंट साबित हुआ क्योंकि इससे उसे नो मोटर्स के एच सीरीज इंजन की टेक्नोलॉजी हासिल हुई जो कि जापान में बेहद सक्सेसफुल था साथ ही इसी साल कंपनी ने स्टेलियन नाम के एक और ट्रक को लॉन्च किया जो कि खास तौर पर इंडियन आर्मी के लिए डिजाइन किया गया था इसके खास बात यह थी कि चाहे हिमालया के ऊंचे पहाड़ हो राजस्थान के रेगिस्तान या फिर रिमोट बॉर्डर एरियाज स्टेलियन ट्रक हर टफ कंडीशन में बेहतरीन तरीके से काम करता था लेकिन दोस्तों इतने कमाल के व्हीकल्स होने के बावजूद 1980 में अशोक लीलैंड कई सारी मुश्किलों का सामना भी कर रहा था क्योंकि टा मोटर्स और इसी तरह के कई सारे इंडियन ब्रांड्स तेजी से ग्रो कर रहे थे जिसे अशोक लीलैंड को टफ कंपटीशन मिलने लगा ऊपर से ग्लोबल आर्थिक मंदी ने कमर्शियल व्हीकल इंडस्ट्री पर गहरा असर डाला और फिर समय के साथ सिचुएशन इतनी बिगड़ गई कि अशोक लीलैंड भारी कर्ज में डूब गई लेकिन दोस्तों यहीं पर एंट्री हुई हिंदुजा ग्रुप की जो कि बैंकिंग फाइनेंस एनर्जी हेल्थ केयर और ऑटोमोबाइल सेक्टर में एक बड़ा नाम था और 80 के दौरान यह कंपनी तेजी से अपना एक्सपेंशन कर रही थी और दोस्तों इसी एक्सपेंशन के टाइम पर ही 1987 में हिंदुजा ग्रुप ने पड ग्रुप की आईवी को कंपनी के साथ मिलकर अशोक लीलैंड में मेजॉरिटी स्टेक्स खरीद लिए आईवी को के आने के बाद से अशोक लीलैंड को काफी फायदा हुआ क्योंकि इसकी टेक्निकल एक्सपर्टाइज्ड की मदद से अशोक लीलैंड ने इंटरनेशनल मार्केट में भी एक मजबूत पकड़ बना ली और साथ ही भारत में अपने एक्सपेंशन को बढ़ाते हुए 1996 में अशोक लीलैंड ने हो सूर में अपने दूसरे प्लांट की शुरुआत की जिसकी नीव खास तौर पर आर्मी व्हीकल्स बनाने के लिए रखी गई थी आपको बताते च चलें कि यहीं पर बने स्टेलियन ट्रक्स ने 1999 के कारगिल वॉर के दौरान सैनिकों को ना सिर्फ सेफ्टी के साथ फ्रंट लाइन तक पहुंचाया बल्कि कारगिल जैसे मुश्किल भरे पहाड़ी इलाकों में गोला बारूद खाने पीने का सामान और जरूरी सप्लाई समय पर पहुंचाने का भी काम किया इसके बाद से 2002 में अशोक लीलैंड ने भारत की पहली हाइब्रिड इलेक्ट्रिक बस लॉन्च की जो कि एनवायरमेंट को बचाने की दिशा में एक इंपॉर्टेंट स्टेप था 2007 में हिंदुजा ग्रुप ने अशोक लीलैंड में आइको के जो स्टेक्स थे उसे भी एक्वायर कर लिया और इस तरह 51 स्टेक के साथ आज हिंदूजा ग्रुप के पास ही अशोक लीलैंड का मालिकाना हक है लेकिन दोस्तों अपने सफर में आगे बढ़ते हुए एक जगह पर अशोक लीलैंड बुरी तरह से पीछे छोट गया था और वह था ईवी रिवोल्यूशन जब बाकी कंपनियां तेजी से इलेक्ट्रिक फ्यूचर की तरफ बढ़ रही थी तब अशोक लीलैंड अभी भी अपनी पुरानी डीजल टेक्नोलॉजी में फंसा हुआ था टा मोट्स ने अपनी पहली इलेक्ट्रिक बस लॉन्च कर दी मैं इंदराज ने भी कमर्शियल ईवीज में एंट्री कर ली लेकिन अशोक लीलैंड अपने पुराने रोड मैप को ही फॉलो कर रहा था अब प्रॉब्लम यह थी कि सरकार भी ईवी एडॉप्शन को एग्रेसिवली पुश कर रही थी पेट्रोल डीजल की कीमतें भी बढ़ती जा रही थी और कस्टमर इको फ्रेंडली व्हीकल्स की तरफ शिफ्ट हो रहे थे ऐसे में कंपनी को बहुत ही जल्द समझ आ गया कि अगर वह बदलते ट्रेंड के साथ में नहीं चले तो एक दिन गुमनाम हो जाएंगे इसी वजह से 18 जुलाई 2017 को अशोक लीलैंड ने सन मोबिलिटी के साथ में में एक इंपॉर्टेंट एलाइंस साइन किया ताकि इलेक्ट्रिक व्हीकल्स के डेवलपमेंट को आगे बढ़ाया जा सके अब अगर हम फिलहाल की बात करें तो अशोक लीलैंड बस बनाने वाली दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कंपनी है और रही बात कमर्शियल व्हीकल्स की तो यहां भी वह भारत की दूसरी सबसे बड़ी कंपनी है और दोस्तों कमाल की बात तो यह भी है कि 2021 में कंपनी का रेवेन्यू जहां 9454 करोड़ था वह सिर्फ 3 सालों में ही दो गुना बढ़कर 4790 करोड़ हो गया है आज अशोक लीलैंड ना सिर्फ इंडिया में बल्कि इंटरनेशनल लेवल पर भी एक मेजर प्लेयर बन चुका है इस कंपनी ने अपनी जर्नी में हमेशा कस्टमर्स के नीड्स को समझा और उनकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए टेक्नोलॉजी और स्ट्रेटेजी में लगातार इंप्रूवमेंट किया यही वजह है कि आज अशोक लीलैंड दुनिया के सबसे बड़े और सबसे रिलायबल व्हीकल मैन्युफैक्चरर्स में से एक माना जाता है

2) https://youtu.be/eirp56YGWrs?si=ade958alBBMvx4re

आज से 15 साल पहले रो ग्रुप ने रोड पर हो जिनकी दो वर्ल्ड क्लास आर एनडी सेंटर्स हो और जो हार्ले डेविडसन जैसी प्रीमियम बाइक को प्रोड्यूस करती हो वो कंपनी इंडियन टू व्हीलर मार्केट में अपने गिरते मार्केट शेयर को रोकने में नाकाम क्यों हो रही है कभी रो ने की वजह से रो m के लिए नंबर वन पोजीशन को बरकरार रखना बेहद मुश्किल हो गया है लेकिन दोस्तों क्या आपने सोचा है कि रो साइकल्स जिसने कभी रो मो कप की नीव रखी थी आज किस मुकाम पर है या फिर रो इलेक्ट्रिक जो ला से भी पहले ईवी सेगमेंट में थी अब कैसी हालत में है और हां इनकी रो मोटर्स जो आज ऑटोमोटिव पार्ट्स की एक बड़ी कंपनी है वह क्या कर रही है कंफ्यूज मत होइए रो साइकिल्स रो इलेक्ट्रिक और रो मोटर्स इन तीनों कंपनीज का रो मो कप से कोई रिलेशन नहीं है आज की वीडियो में हम हम इन सारे कंफ्यूजन को दूर करते हुए हीरो की शुरुआत से लेकर होंडा से अलग होने की कहानी उनके फैमिली डिवीजन और करंट सिचुएशन को डिटेल में जानने वाले हैं हीरो की कहानी शुरू होती है आजादी से पहले साल 1944 में जब पंजाब के कमालिया गांव में चार भाई अपने पिता के साथ अनाज की ट्रेडिंग किया करते थे देश में माहौल ठीक नहीं था और लोग अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतर आए थे उसी दौर में वह चारों भाई परिवार के साथ कमालिया छोड़कर अमृतसर आ गए और नए सिरे से जिंदगी शुरू कर ने की कोशिश करने लगे चारों भाइयों के पास कोई डिग्री तो नहीं थी लेकिन बिजनेस की अच्छी समझ थी उन्हें लगा कि आजादी के बाद साइकिल के बिजनेस में अच्छा ग्रोथ देखने को मिलेगा क्योंकि उस दौर में ज्यादातर साइकिल्स इंपोर्ट की जाती थी और महंगी होने की वजह से लोगों की पहुंच से दूर थी हालांकि कुछ इंडियन साइकिल कंपनीज भी मौजूद थी लेकिन उनकी क्वालिटी विदेशी ब्रांड्स के मुकाबले कहीं भी नहीं टिकती थी ऐसे में एक सस्ती और मजबूत साइकिल बनाने का बिजनेस उन्हें काफी फायदा पहुंचा सकता था लेकिन उस वक्त उनके पास ना तो इसकी टेक्नोलॉजी थी और ना ही उनकी हैसियत इतनी थी कि वे साइकिल बनाने की फैक्ट्री शुरू कर पाते फिर सबने मिलकर फैसला किया कि साइकिल ना सही वोह साइकिल के पार्ट्स बनाएंगे जिसके लिए बिजनेस लाने की जिम्मेदारी ब्रजमोहन लाल मुंजाल को दी गई जबकि बाकी तीन भाई दयानंद सत्यानंद और ओम प्रकाश मुंजाल पार्ट्स के प्रोडक्शन और डिलीवरी का काम संभाल लिए लोकल सप्लायर्स और कारीगरों की मदद से उन्होंने पार्ट्स की सप्लाई शुरू की और जब कुछ पैसे इकट्ठे हो गए तो घर के पीछे ही भट्ठी लगाकर कुछ कारीगरों को काम पर रख लिए उसी दौरान ओपी मुंजाल को पता चला कि उनके एक सप्लायर दोस्त जो उनको साइकिल की सीट्स प्रोवाइड करते थे हमेशा के लिए पाकिस्तान शिफ्ट होने वाले हैं तो उनसे मिलकर ओमपकाश जी ने पूछा कि क्या मैं आपके ब्रैंड का नाम इस्तेमाल कर सकता हूं वे तुरंत राजी हो गए और जानते हैं दोस्तों वह नाम क्या था वह नाम था हीरो और यहीं से शुरुआत हुई रो ग्रुप के विशाल बिजनेस एंपायर की साल आया 1954 एक डीलर के जरिए हीरो को एटलस साइकिल्स के फर्क बनाने का ऑर्डर मिला मुंजाल ब्रदर्स ने पेपर पर फर्क का डिजाइन बनाया और उसे तैयार करके ऑर्डर को डिलीवर कर दिया लेकिन फर्क के टू टने की इतनी कंप्लेंट्स आई कि डीलर ने सारा माल ही वापस कर दिया लेकिन मुंजाल ब्रदर्स हिम्मत नहीं आ रहे डिजाइन पर फिर से काम किए और उससे मजबूत फर्क तैयार करके डीलर को फिर से सप्लाई की इस बार कमाल हो गया फर्क की क्वालिटी इतनी अच्छी थी कि उन्हें साइकिल के हैंडल्स मडगार्ड और बाकी बचे पार्ट्स के भी ऑर्डर्स मिलने लगे मुंजाल ब्रदर्स वो मुकाम हासिल कर चुके थे जहां वे खुद साइकिल बनाने के बारे में सोच सकते थे फिर साल 1956 में लुधियाना की फैक्ट्री से रीजेंट कंपनी के रिम और डनलप के टायर ट्यूब के साथ पहली हीरो साइकिल मार्केट में लॉन्च कर दी गई यह दिखने में इंपोर्टेड साइकिल्स जैसी अच्छी तो नहीं थी लेकिन मजबूती में उनसे कई गुना बेहतर और चलाने में आरामदायक थी किसान दूध वाले मजदूर और नौकरी पेशा लोगों के लिए हीरो साइकिल्स एक सहारा बनने लगी हालांकि शुरुआत में सिर्फ 600 साइकिल्स का ही प्रोडक्शन होता था फिर बैंक से 50000 का लोन लेकर धीरे-धीरे प्रोडक्शन को बढ़ाया गया लेकिन उसी बीच 1968 में सबसे बड़े भाई दयानंद जी की डेथ हो गई पर ग्रोथ की रफ्तार को बाकी भाइयों ने कम नहीं होने दिया और 1986 आते-आते हीरो दुनिया का सबसे बड़ा साइकिल प्रोड्यूसर बन गया लेकिन साइकिल के अलावा दूसरी तरफ स्कूटर्स और मोपेड भी काफी पॉपुलर हो रहे थे पहले तो हीरो ने फ्रेंच कंपनी पजो के साथ कोलबोर्न की कोशिश की लेकिन जब बात नहीं बनी तो 1978 में उन्होंने हीरो मैजेस्टिक के नाम से 49 सीसी का मोपेड भी लॉन्च कर दिया रो के दो मॉडल्स पेसर एंड पैंथर को लोगों ने इतना पसंद किया कि कुछ ही समय में 35 पर से भी ज्यादा मोपेड मार्केट पर हीरो का कब्जा हो गया इस जबरदस्त रिस्पांस से हीरो और मोटिवेट हुआ और जल्द ही एक ऑस्ट्रियन कंपनी के साथ कोलबो में रो पुछ को मार्केट में उतार दिया जिसे खास तौर पर प्रीमियम कस्टमर्स को ध्यान में रखकर बनाया गया था अब हीरो ग्रुप साइकल और मोपेड सेगमेंट का किंग बन चुका था मुंजाल ब्रदर्स के पास किताबी ज्ञान तो नहीं था लेकिन जिस तरीके से उन्होंने बिजनेस को एक्सपेंड किया उससे काफी कुछ सीखा जा सकता है वह इंडिया के हर हिस्से में गए ताकि एक मजबूत डीलर नेटवर्क एस्टेब्लिश किया जा सके साथ ही ब्रजमोहन लाल मुंजाल की पर्सनालिटी ऐसी थी कि लोग हीरो से बतौर डीलर या सप्लायर नहीं बल्कि एक परिवार की तरह जुड़ते थे प्रोडक्टिविटी बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने लोगों को ही फैक्ट्री के आसपास साइकिल और मोपेड के पार्ट्स बनाने के लिए राजी किया और इसके अलावा उन्होंने दुनिया की बेहतरीन प्रैक्टिसेस को भी अडॉप्ट किया इसमें सबसे खास था 80 के दशक में स्कूटर्स और मोपेड्स की पॉपुलर धीरे-धीरे घटने लगी लोग अब ज्यादा किफायती और बेहतर माइलेज वाली 100 सीसी कम्यूटर बाइक्स की तरफ अट्रैक्ट हो रहे थे उसी दौरान जापानी कंपनी के बीच एक म्यूचुअल एग्रीमेंट हुआ कि बाइक की टेक्नोलॉजी और इंजन honda.com लाल मुंजाल के बेटे रमन कांत मुंजाल को रो होंडा की कमान सौंपी गई और 1985 में हरियाणा के धारूहेड़ा प्लांट में बनी रो को इंडियन मार्केट में लॉन्च कर दिया गया फिल इट शट इट फॉरगेट इट इस टैग लाइन के साथ रो honda's को मार्केट में उतारा गया फिर साल आया लिबरलाइजेशन का जहां एक तरफ बाकी सारी ऑटोमोबाइल कंपनीज विदेशी ब्रांड्स के आने से तगड़ा कंपटीशन फेस कर रही थी वहीं रो एक शौक उनको तब लगा जब इसी साल अचानक रमन कांत मुंजाल की डेथ हो गई लेकिन ब्रजमोहन जी ने अपने दूसरे बेटे पवन मुंजाल के साथ कंपनी की बागडोर को फौरन अपने हाथ में ले लिया रो होंडा में एक नए दौर की शुरुआत हो चुकी थी क्योंकि पवन मुंजाल बिजनेस को डायवर्सिफाई करने के साथ ही अपने ब्रांड को तेजी से दुनिया के हर कोने में पहुंचाना चाहते थे फिर साल 1994 में कंपनी उस बाइक को मार्केट में लेकर आई जिसने रो honda's सेल्स इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि साल 2001 तक रो एक छोटे से साइकिल ब्रांड को सेलेक्ट किया था लेकिन लिबरलाइजेशन के बाद वह अकेले अपने दम पर इंडिया में बिजनेस करने के लिए आजाद थे दूसरी तरफ था रो जिसे ज्यादातर हिस्सा रिसर्च एंड डेवलपमेंट पर खर्च करने लगे यह देखकर honda's ने एक के बाद एक कुछ ऐसे स्टेप्स लेने शुरू कर दिए जिससे उनके बीच की दरार बढ़ती चली गई जैसे कि साल 95 में थी जिसके जवाब में रो ने भी साल 2005 में aa0 में hero7 26 पर स्टेक थे जिसमें के अलग होने का साल नहीं था बल्कि मुंजाल परिवार में भी प्रॉपर्टी का डिवीजन हुआ सबसे बड़े भाई दयानंद मुंजाल के परिवार को मजेस्टिक आटो मिला जो आज मोपेड के बिजनेस को बंद करके रियल स्टेट एंड फाइनेंशियल इन्वेस्टमेंट्स के फील्ड में एंटर कर चुके हैं सत्यानंद मुंजाल को रो मोटर्स दिया गया जो आज ऑटोमोटिव कंपोनेंट्स की एक लीडिंग कंपनी है इसके अलावा हीरो साइकल्स को ओपी मुंजाल ने संभाल लिया और बाकी बचा रो मोटो कप जिसकी जिम्मेदारी ब्रजमोहन लाल मुंजाल को दी गई लेकिन दोस्तों अब कहानी पूरी तरह से बदलने वाली थी क्योंकि रो अभी भी अपना खुद का इंजन डेवलप नहीं कर पाया था उसने यूनिट शुरू करके उन्होंने दिखा दिया कि वाकई में वह हीरो हैं लेकिन दोस्तों अलग होने से पहले जिस रो honda's और एएफ डीलक्स की सेल्स के आगे तो अपनी बादशाहत कायम रखने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े और उनकी नंबर वन की पोजीशन पर आज तलवार क्यों लटकी हुई है दरअसल डिवीजन के बाद हीरो का पूरा फोकस अपने 100 सीसी कम्यूटर सेगमेंट पर था क्योंकि स्पलेंडर और पैशन जैसे पॉपुलर ब्रांड तो उनके पास थे लेकिन की गांव और छोटे कस्बों में हीरो का दबदबा बरकरार रहा दूसरी तरफ अगर हम स्कूटर्स की बात करें तो honda.com m इस सेगमेंट में भी कुछ कमाल नहीं कर पाई रो प्लेजर को थोड़ी बहुत सक्सेस मिली लेकिन उसके बाद m डेनी और जम जैसे स्कूटर्स भी उनका मार्केट शेयर 15-20 पर से ऊपर नहीं ले जा सके रही बात इलेक्ट्रिक स्कूटर्स की तो उसमें भी hero2 में उसने v के नाम से इलेक्ट्रिक स्कूटर्स लॉन्च किए थे लेकिन तब तक ला एर बजज और टीवीएस मार्केट में अपनी पकड़ बना चुके थे आप सोच रहे होंगे कि रो ने तो ऑप्ट फोन और रो फ्लैश के नाम से सबसे पहले अपने इलेक्ट्रिक स्कूटर्स लॉन्च किए थे हां रो इलेक्ट्रिक ने लच किए थे लेकिन वह बि जिज मोहन लाल मुंजाल की रो मोटो कर्प से अलग है दरअसल 2007 में सत्यानंद मुंजाल के बेटे नवीन मुंजाल ने हीरो इलेक्ट्रिक को एस्टेब्लिश किया था उन्हें फर्स्ट मूवर होने का फायदा भी मिला और 2010 तक 6070 पर मार्केट पर उनका ही राज था लेकिन फैमिली डिवीजन के वक्त एक एग्रीमेंट हुआ था कि ो रो के नाम से इलेक्ट्रिक सेगमेंट में नहीं उतरेगा लेकिन कुछ ऐसे इंसीडेंट हुए कि 2020 आते-आते रो इलेक्ट्रिक मार्केट से लगभग गायब ही हो गया और इस सेगमेंट के पोटेंशियल को देखते हुए ो ने वीड के नाम से अपने इलेक्ट्रिक स्कूटर को लॉन्च कर दिया लेकिन इन सबके बावजूद रो को एक और बड़ा झटका लगा 2020 में जब गवर्नमेंट ने bs6 एमिशन नॉर्म्स को लागू किया बड़ी मेहनत से तो रो ने अपना इंजन डेवलप किया था जिसमें फिर काम करने की जरूरत पड़ गई और उनकी जो i3s और एक्सेंस टेक्नोलॉजी लोगों का भरोसा जीतना अभी शुरू ही की थी उस पर भी काफी नेगेटिव असर पड़ा वजह थी कि जहां एक तरफ स्लर और एएफ डीलक्स जैसे पॉपुलर बाइक्स के दाम में 5 टू 10000 का इजाफा हो गया वहीं दूसरी तरफ इंजन के पावर एंड परफॉर्मेंस में भी कमी महसूस हुई इंजन पहले जैसा स्मूथ नहीं रहा और थ्रोटल रिस्पांस में भी कमी देखने को मिली यह सारे रीजंस काफी थे रो मो काप की सेल्स को नीचे ले जाने के लिए और आज की बात करें तो hero's का फासला इतना कम हो गया है कि अगर जल्दी का है लेकिन दोस्तों जिस हीरो को नंबर वन पर रहने की आदत हो वह हार कैसे मान सकता है रो ने इन सारे इश्यूज को बारीकी से एनालाइज किया है और इसे सॉल्व करने के लिए तेजी से काम हो रहा है परफॉर्मेंस बाइक्स के लिए आर एडी में भारी निवेश करके एक्स पल्स एक्सट्रीम और करिज्मा जैसे मॉडल लांच किए गए हैं ताकि पलसर और अचे को कड़ी टक्कर दी जा सके और एक कदम आगे बढ़ते हुए रो ने हार्ले डेविडसन के साथ भी कोलैब किया है ताकि प्रीमियम सेगमेंट में भी अपनी पकड़ मजबूत बना सके और अगर ईवी सेगमेंट में भी v की एंट्री को देर आए दुरुस्त आय कहा जाए तो गलत नहीं होगा 2024 में टोटल टू व्हीलर्स की सेल्स करीब 18 मिलियन रही जिसमें से सिर्फ 56 पर इलेक्ट्रिक स्कूटर्स थी और इस सेगमेंट में v ने 2023 के मुकाबले 355 पर की ग्रोथ दर्ज करते हुए 55000 से भी ज्यादा स्कूटर्स सेल किए हैं आज थर एनर्जी में भी रो का 40 पर स्टेक है साथ ही बाइक्स के परफॉर्मेंस रिलेटेड इश्यूज को काफी सुधार कर रो अपने सेल्स एंड सर्विस को पहले से बेहतर बनाने पर ध्यान दे रही है हमें उम्मीद है कि अगले कुछ क्वाट में यह सारे एफर्ट्स उनके बैलेंस शीट में साफ तौर पर नजर आएंगे दोस्तों इंडिया की टू व्हीलर इंडस्ट्री ने पूरी दुनिया में देश का नाम रोशन किया है चाहे वह रो बजज टीवीएस हो या रॉयल इफील्ड एक हेल्दी कंपटीशन हमेशा देश की इकॉनमी और कंज्यूमर्स के लिए फायदेमंद साबित होता है थैंक्स फॉर वाचिंग

3) https://youtu.be/jgOD-cinMOc?si=Lfq8XTLE7LPipMFk

4) https://youtu.be/DZ2eRtPdn4c?si=uFtSq6N4VgAaHS07

5) https://youtu.be/MPwNLJBj4ao?si=FL9eC-x155PPE-lH

6) https://youtu.be/daZo4GMcCvc?si=HUzUFx-2SjfeY82u

7) https://youtu.be/SgAgzxhIWNc?si=uBeHRk3KUMJp3JY0

8) https://youtu.be/DumulqSgdgM?si=ZEGuLG2V37YkzdrN

9) https://youtu.be/S3iJ49f5HMo?si=iO0DV78zU5osB3Yd

10) https://youtu.be/gTP6TrPphkk?si=ICvfegkxl67puspb

अल्ट्राटेक देश का सबसे बड़ा सीमेंट ब्रांड कैपेसिटी इतना कि अमेरिका के सारे सीमेंट कंपनीज भी एक साथ आ जाए ना तो भी अकेले अल्ट्राटेक के जितना सीमेंट नहीं बना पाएंगे लेकिन रुकिए यह पोजीशन भी अब सेफ नहीं है क्योंकि जहां कुमार मंगलम बिरला को अल्ट्राटेक को यहां तक लाने में 57 साल लग गए थे वहीं गौतम अडानी ने सिर्फ 3 सालों में ही इंडिया का सेकंड लार्जेस्ट सीमेंट ब्रांड बना दिया और अब मार्केट में नंबर वन बनने की लड़ाई इतनी अग्रेसिव हो गई है कि लोगों ने इसे द ग्रेट सीमेंट वरक का टाइटल दे दिया है तो आखिर कैसे अल्ट्राटेक अपनी पोजीशन को टॉप पर बनाए रखने के लिए जी जान से लगा हुआ है आखिर ऐसी भी क्या जरूरत आन पड़ी कि गौतम अडानी को सीमेंट मार्केट में भी एंटर करना पड़ गया और इस वॉर का रिजल्ट भी क्या jio1 की तरह हाथ मिलाकर लोगों को लूटने पर खत्म होगा सब कुछ हम डिटेल में जानने वाले हैं आज के इस वीडियो में तो दोस्तों सबसे पहले अगर हम बात करें अल्ट्राटेक की तो यह बेसिकली दो कंपनियों को मर्ज करके बनाई गई थी पहली आदित्य बिल्ला ग्रुप की ग्रास सीमेंट और दूसरी लार्सन एंड टब की एलएनटी सीमेंट एक्चुअली बात है साल 2000 की जब एलएनटी कंपनी ने अपने सीमेंट बिजनेस को सेल करने का डिसीजन लिया उस टाइम पर यह इंडिया का लार्जेस्ट सीमेंट मैन्युफैक्चरर हुआ करता था जबकि वहीं आदित्य बिरला ग्रुप के ग्रासिम सीमेंट थर्ड लार्जेस्ट सीमेंट प्रोड्यूसर थी ग्रासिम ने साल 2000 के बाद से एलएनटी के सीमेंट बिजनेस को साल दर साल खरीदना शुरू कर दिया जैसे कि 2002 में 15 पर 2003 में 30 पर और 2004 में 51 पर शेयर बाय करके आदित्य बिरला ग्रुप के ग्रासिम ने पूरे कंपनी के मैनेजमेंट पे ही कंट्रोल कर लिया था और फिर 2004 में एल एनटी सीमेंट का नाम चेंज करके अल्ट्राटेक कर दिया गया और इस टाइम पर 30 मिलियन टंस पर एनम कैपेसिटी के साथ अल्ट्राटेक भारत के नंबर वन सीमेंट कंपनी बन गई थी वेल यहां पर याद रखिएगा 30 एमटीपीए के साथ अल्ट्राटेक फिलहाल नंबर वन सीमेंट कंपनी है क्योंकि वीडियो में कुछ टाइम के बाद से हम यहीं से आगे की बात करेंगे लेकिन फिलहाल अगर हम अडानी ग्रुप की बात करें तो फिर उन्होंने सीमेंट इंडस्ट्री में 2022 में एंट्री लिया जब उन्होंने इसी साल सितंबर में इंटरनेशनल ब्रैंड हॉल सिम से अंज और एसीसी सीमेंट को 6.4 बिलियन डॉलर यानी कि करीब 000 करोड़ में एक्वायर किया था और दोस्तों गौतम अडानी का यह सीमेंट मार्केट में घुसना कोई छोटा-मोटा एंट्री नहीं था क्योंकि वह एक ही झटके में इस एक्विजिशन के साथ अल्ट्राटेक के बाद से दूसरे सबसे बड़े प्लेयर बन गए थे वेल हम दोबारा चलते हैं 2004 में जब 30 मिलियन टंस पर एनम के साथ अल्ट्राटेक नंबर वन सीमेंट कंपनी बन गया था हालाकि कि भले ही उस समय पर अल्ट्राटेक कैपेसिटी के मामले में मार्केट लीडर था लेकिन इस टाइम u और एसीसी सीमेंट जैसे मिड साइज सीमेंट ब्रांड भी काफी तेजी से आगे बढ़ने लगे थे और ऐसा होने के पीछे सबसे बड़ा रीजन था अल्ट्राटेक का लेट स्टार्ट एक्चुअली अल्ट्राटेक ने मार्केट में एज अ सेपरेट एंटिटी 2004 में एंट्री लिया था जिसकी वजह से वह अपने कंपटीसन ब्रांड आइडेंटिटी और लॉयल कस्टमर बेस नहीं बना पाया था इसके साथ ही अल्ट्राटेक नाम नया होने की वजह से लोग अमोज और एसीसी को ज्यादा प्रेफर करने लगे थे इतना ही नहीं अमूजा और एसीसी ने इस अपॉर्चुनिटी को ग्रैब करने के लिए इंटरनेशनल ब्रांड हॉल सिम के साथ में हाथ मिला लिया जिसकी मदद से उन्हें ग्लोबल एक्सपर्टाइज्ड टेक्नोलॉजी का एक्सेस मिल गया जिससे कि अब यह कंपनीज लोगों को पहले से काफी अच्छी क्वालिटी की सीमेंट भी ऑफर करने लगी थी लेकिन दोस्तों यहां पर अल्ट्राटेक हाथ पर हाथ रखकर बैठने वालों में से थोड़ी थी भले उनका बाहर मार्केट में रिजल्ट नहीं दिख रहा था लेकिन अंदर ही अंदर वो कुछ ऐसा कर रहे थे जिसकी वजह से आगे चलकर सारे कंपटीसन से पीछे हो जाने वाले थे एक्चुअली अल्ट्राटेक अंदर ही अंदर अपना प्रोडक्शन कैपेसिटी बढ़ा रहा था जिसके लिए पहले तो उन्होंने कई सारी नई फैक्ट्रीज लगाई और फिर कुछ एजिस्टिफाई के स्टार सीमेंट को भी एक्वायर कर लिया जिसकी वजह से उन का कैपेसिटी बढ़कर 52 एमटीपीए तक हो गया वहीं दूसरी तरफ भले ही अंबुजा और एसीसी इंडियन सीमेंट मार्केट के डोमिनेटिंग प्लेयर थे लेकिन वोह लोग भी सिर्फ नॉर्थ और सेंट्रल इंडिया में ही ज्यादा एक्टिव थे जबकि बाकी के पूरे देश में अभी भी अलग-अलग और लोकल प्लेयर्स का ही बोलबाला हुआ करता था लेकिन दोस्तों क्या आपको पता है मार्केटिंग का फाइव पीस का रूल क्या कहता है कि पहले प्रोडक्ट बनाओ फिर प्राइस डिसाइड करो प्रोडक्ट को मार्केट में प्लेस करो और फिर जाकर प्रमोट करो जिससे कि पीपल यानी कि कस्टमर्स के पास आपका प्रोडक्ट आसानी से पहुंच जाए और दोस्तों एगजैक्टली इसी बिजनेस स्ट्रेटेजी को अल्ट्राटेक ने बखूबी यूज किया था एक्चुअली उन्होंने पहले प्रोडक्शन कैपेसिटी एक्सपेंड किया मार्केट में अपना प्रोडक्ट प्लेस किया और फाइनली जाकर प्रमोशन पर ध्यान दिया और दोस्तों इन्हीं बेहतरीन स्ट्रेटजी का ही असर था कि 2010 तक अल्ट्राटेक का कैपेसिटी 52 मिलियन टंस पर एनम हो चुका था हालांकि यह सब भी अल्ट्राटेक के लिए काफी नहीं था क्योंकि उनका पैन इंडिया प्रेजेंस अभी भी कम था जिस की वजह से इतनी कैपेसिटी होने के बाद भी लोकल प्लेयर्स ही अपने-अपने स्टेट में बाजी मार ले जाते थे अब जब अल्ट्राटेक ने यह एनालाइज किया कि वो मार्केट के कुछ लिमिटेड एरिया तक ही सीमित होकर रह गए हैं ऐसे में पूरे इंडिया पर राज करने के लिए उन्होंने कई सारी कंपनियों को खरीदना चालू किया और दोस्तों ये स्ट्रेटेजिक एक्विजिशंस अल्ट्राटेक को नॉर्थ से लेकर साउथ और ईस्ट से लेकर वेस्ट तक हर जगह पर टॉप पर ला दिया था जैसे कि इंडिया के वेस्ट रीजन में अपना प्रेजेंस एस्टेब्लिश करने के लिए 2013 में अल्ट्राटेक ने जेपी ग्रुप के गुजरात सीमेंट यूनिट को एक्वायर कर लिया था और कुछ इसी तरह से अजा और एसीसी डोमिनेटेड नॉर्थ और सेंट्रल इंडिया रीजन में अपना दबदबा बनाने के लिए 2017 में अल्ट्राटेक ने जयप्रकाश एसोसिएट्स के सीमेंट प्लांट्स को भी एक्वायर कर लिया और फिर ईस्ट इंडिया में अपनी पकड़ बनाने के लिए अल्ट्राटेक ने सेंचुरी टेक्सटाइल्स के सीमेंट बिजनेस को खरीद लिया और कुछ इस तरह से ईस्ट वेस्ट नॉर्थ और सेंट्रल इंडिया में अलग-अलग एक्विजिशंस के बाद अल्ट्राटेक चाइना के बाद दुनिया की पहली कंपनी बनी जिसने अपनी कैपेसिटी 100 मिलियन टंस पर एनएम से भी ज्यादा कर लिया था और दोस्तों यह सिर्फ कंपनी की ही नहीं बल्कि पूरे इंडिया की ग्लोबल लेवल पर एक बड़ी अचीवमेंट थी और दोस्तों अब 2019-20 तक अल्ट्राटेक का प्रॉफिट भी आसमान छूने लगा था क्योंकि इस फाइनेंशियल ईयर अल्ट्राटेक ने 4476 करोड़ का रिकॉर्ड रेवेन्यू जनरेट किया था अब दोस्तों अल्ट्राटेक अपनी जीत की खुशी मना ही रहा था कि इसी बीच एक नहीं बल्कि दो आफत अल्ट्राटेक के सर पर आन पड़ी अब पहले प्रॉब्लम को तो अल्ट्रा टेक ने जैसे-तैसे करके सॉल्व कर लिया लेकिन दूसरे प्रॉब्लम ने आदित्य बिरला के रातों की नींद उड़ाकर रख दी थी एक्चुअली फाइनेंशियल ईयर 2019-20 के खत्म होने से ठीक एक हफ्ते पहले कोविड-19 पेंडम की वजह से देश भर में लॉकडाउन लगानी पड़ गई जिस दौरान ट्रांसपोर्टेशन से लेकर फैक्ट्री सब कुछ थप पड़ गई इस लॉकडाउन के टाइम पर अल्ट्राटेक को और भी कंपनीज की तरह काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा जैसे कि शुरुआती कोविड पैंमिकन पर फैक्ट्रीज ढंग से ऑपरेट नहीं हो रही थी और इस की वजह से 117 एमटीपीए कैपेसिटी होने के बावजूद भी सिर्फ 76 एमटीपीए ही यूटिलाइज हो पा रहा था हालांकि इतना सब कुछ होने के बाद भी अल्ट्राटेक ने अपना स्ट्रांग फाइनेंशियल पोजीशन मेंटेन करके रखा और फिर जैसे ही जैसे इकॉनमी खुली वैसे-वैसे ही अल्ट्राटेक रिकवरी करने लगा लेकिन दोस्तों कोविड के बाद इससे भी बड़ा चैलेंज उनके सामने आ खड़ा हुआ जिसने ना सिर्फ अल्ट्राटेक को बल्कि पूरे सीमेंट इंडस्ट्री को ही हिलाकर रख दिया था एक्चुअली इस टाइम पर खबर आने लगी कि गौतम अडानी भी अब सीमेंट मार्केट में एंटर करने वाले हैं और वह भी कोई छोटी-मोटी एंट्री नहीं बल्कि ऐसी ग्रैंड एंट्री जिसने उन्हें एक ही झटके में अल्ट्राटेक के बाद दूसरा सबसे बड़ा प्लेयर बना दिया था एक्चुअली अडानी ग्रुप ने सितंबर 2022 में इंटरनेशनल ब्रांड हॉल सिम से अंबुज और एसीसी सीमेंट को 000 करोड़ में एक्वायर कर लिया था और इस एक्विजिशन के साथ ही गौतम अडानी को कुल 68 मिलियन टंस पर एनम की बड़ी कैपेसिटी थाली में सजी सजाई मिल गई पर हां अभी भी अडानी साहब शांत नहीं बैठे हैं क्योंकि उनका टारगेट 2028 तक अपनी कैपेसिटी बढ़ाकर 140 एमटीपीए पर ले जाना है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अडानी ग्रुप भी लगातार एक्विजिशंस करने में लगा हुआ है और दोस्तों छोटे-छोटे कई सारे कंपनीज को एक्वायर करके आज के टाइम पर अडानी का सीमेंट कैपेसिटी 85 मिलियन टंस पर एनम ऑलरेडी हो चुका है लेकिन दोस्तों सबसे बड़ा सवाल तो यह है ना क्या डनी के पास पहले से ही इतने सारे बिजनेसेस थे तो फिर उन्हें अचानक से सीमेंट बिजनेस में घुसने की खलबली क्यों मच गई तो दोस्तों अभी इंडिया में बहुत तेजी से इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट हो रहा है चौड़े चौड़े रोड बन रहे हैं उन पर बड़े-बड़े ब्रिज डेवलप किए जा रहे हैं हॉस्पिटल्स मॉल्स पोर्ट एयरपोर्ट और कॉलेज सब कुछ बहुत तेज रफ्तार से बढ़ रहे हैं ऐसे में हर जगह पर सीमेंट का काम तो लगने ही वाला है और इस अपॉर्चुनिटी को ही ग्रैब करने के लिए गौतम अडानी सीमेंट बिजनेस में भी कूद पड़े हैं और हां अभी तक जिन-जिन बिजनेसेस में अडानी साहब पहले से ही मौजूद है ना वो भी सीमेंट बिजनेस को फुल्ली सपोर्ट करते हैं जैसे कि सीमेंट प्रोड्यूस करने के लिए बेसिकली लाइम स्टोन और फ्लाई ऐश की जरूरत होती है जो कि अडानी के पास उनके माइनिंग बिजनेस की वजह से पहले से ही भारी मात्रा में उपलब्ध है इसके बाद से सीमेंट बनाने वाली फैक्ट्रीज के लिए लगेगा इलेक्ट्रिसिटी तो फिर वोह भी अडानी पावर के पास से आ ही जाएगी और दोस्तों अगर बात करें सब कुछ तैयार होने के बाद से सीमेंट को देश विदेश तक भेजा कैसे जाएगा तो फिर यहां भी अडानी के पास में पोर्ट है जिससे वह समुद्री रास्ते पर तो राज करते ही हैं और रही बात हवाई रूड्स की तो यहां पर भी कई सारे एयरपोर्ट्स उनके अंडर में होने की वजह से उन्हें काफी सपोर्ट मिल जाने वाला है कहने का मतलब यह है कि सीमेंट बिजनेस के लिए अडानी मानो पहले से ही तैयार बैठे थे अब दोस्तों आज के डेट में इंडिया वर्ल्ड का सेकंड लार्जेस्ट सीमेंट प्रोड्यूसर है लेकिन हमारा पर कैपिटा कंजप्शन सिर्फ 250 किलो है तो वहीं चाइना का 1600 किलो बेसिकली पर कैपिटा कंजप्शन का मतलब है किसी भी कंट्री में एक आदमी ऑन एन एवरेज कितना सीमेंट यूज़ कर रहा है अब इंडिया सीमेंट बनाने में तो दूसरे नंबर पर है लेकिन अभी हमारी खपत बहुत कम है जो कि चाइना के आंकड़ों को देखकर लगता है कि आगे चलकर काफी ज्यादा बढ़ने वाला है और दोस्तों अगर इतना ही पोटेंशियल है तो फिर इसका फायदा कौन नहीं उठाना चाहेगा यही रीजन है कि अडानी जी भी सीमेंट इंडस्ट्री में कूद पड़े हैं और अब दो दिग्गजों के बीच इंडिया में सीमेंट वॉर छेड़ गया है अब दोस्तों अभी तक आपने देखा कि कैसे अडानी ग्रुप बड़े-बड़े एक्विजिशंस करके इंडिया का सेकंड लार्जेस्ट सीमेंट ब्रांड बन गया है और उनके क्या फ्यूचर स्ट्रेटजीजर वन सीमेंट ब्रांड बनने के लिए लेकिन सवाल आता है कि इस दौरान अल्ट्राटेक क्या कर रहा है अब दोस्तों जैसा कि आप जानते ही हैं कि कुमार मंगलम बरला अल्ट्राटेक सीमेंट के मालिक हैं और यह भी कोई ऐसी छोटी-मोटी हस्ती नहीं हैं जो चुपचाप बैठ जाएं अल्ट्राटेक का करंट कैपेसिटी 152 मिलियन टंस पर एनम है और यह कैपेसिटी इतना ज्यादा है कि यूएस के सारे सीमेंट कंपनीज के कैपेसिटी को भी मिलाकर डेढ़ गुना और पूरे यूरोप में बसे 20-22 देशों के कैपेसिटी का भी 80 पर के बराबर है और आगे भी अपने नंबर वन का पोजीशन मेंटेन रखने के लिए अल्ट्राटेक ने काफी सारे एक्विजिशन करने शुरू कर दिए हैं 2020 तक अल्ट्राटेक ने नॉर्थ सेंट्रल ईस्ट और वेस्ट इंडिया को तो कैप्चर कर ही लिया था लेकिन साउथ इंडिया अभी भी बचा हुआ था इसीलिए उन्होंने साउथ इंडिया पर अपना डोमिनेंस जमाने के लिए एक तो अपना नया सीमेंट प्लांट तमिलनाडु में सेटअप किया है और दूसरा इंडिया सीमेंट कंपनी को भी एक्वायर कर लिया है और दोस्तों आपको बताता चलूं कि इंडिया सीमेंट वही एन श्रीनिवासन की कंपनी है जो कि आईएल टीम सीएसके के ओनर हैं फ्यूचर की अगर बात करें तो बिरला ग्रुप ने अपने सीमेंट बिजनेस में ₹2000000 jio1 नहीं कर रहे हैं वह सीमेंट मार्केट में भी ना हो जाए क्योंकि छोटे-छोटे प्लेयर्स को तो यह लोग खरीद ही ले रहे हैं और लास्ट में बस यही दो लोग बचे और हाथ मिला लिए तो फिर हम और आप जैसे लोगों के लिए यह काफी भारी पड़ सकता है वैसे अगर आप jio1 नहीं और देश में चल रहे टेलीकॉम इमरजेंसी को जानना चाहते हैं तो फिर डिस्क्रिप्शन में दिए गए लिंक से वीडियो को जरूर देखिएगा

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

New Motivational Story

Short story for student